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________________ २४८ गाथा-३३ व्यवहार से अनुकूल (ऐसे) कषाय की मन्दता, शुभराग के ऐसे भाव होते हैं, बराबर सच्चे देव-शास्त्र-गुरु की विनय भी व्यवहार है। वह विनय नहीं होता? निश्चय होवे वहाँ ऐसा विनय, सज्झाय, शास्त्र का स्वाध्याय – ऐसा भाव होता है परन्तु उनका फल पुण्य-बन्ध है, स्वर्ग फल है। समकिती को उसका फल स्वर्ग है – ऐसा कहते हैं। मुमुक्षु - मोक्ष का कारण नहीं है। उत्तर – नहीं। कहा न? 'मोक्खह कारण एक्क' यह सार है, तीन लोक में सार है। (व्यवहार) तीन लोक में सार है ही नहीं। आहा...हा...! यह तो योगसार है। योगसार अर्थात् स्वरूप की एकाग्रता के जुड़ान का सार, मोक्षमार्ग का सागर । मोक्षमार्ग यह एक ही है – ऐसा कहा है। यह योगसार.... समझ में आया? योगसार अर्थात आत्मा शद्ध परमानन्द की मर्ति की श्रद्धा-ज्ञान और रमणता - यह एक ही योगसार है। योगसार एक ही मोक्ष का मार्ग है, इस योगसार में यह कहा गया है, समझ में आया? ठीक, थोड़ा-थोड़ा अर्थ इन्होंने किया है। तीन लोक में सार वस्तु मोक्ष है, जहाँ आत्मा अपना स्वभाव पूर्णरूप से प्रगट कर लेता है, कर्मबन्ध से मुक्त हो जाता है, परमानन्द का नित्य भोग करता है।क्या मोक्ष का उपाय ही तीन लोक में सार है ? ऐसा । मोक्षसार कहा न? तो उसका उपाय भी तीन लोक में सार है। उपाय कौन? कि चारित्र । चारित्र अर्थात् दर्शन-ज्ञानसहित स्वरूप में रमणता वह । दूसरे कहते हैं, चारित्र अर्थात् यह व्रतादि चारित्र.... वह नहीं, समझ में आया? वह उपाय भी अपने ही शुद्धात्मा का सम्यग्दर्शन-ज्ञान और उसमें ही आचरण है। निश्चयरत्नत्रयरूप स्वसमय, स्वरूपसंवेदन अथवा आत्मानुभव है। तीन की एक व्याख्या.... आत्मा के स्वरूप की श्रद्धा, ज्ञान और रमणता, इसे निश्चय रत्नत्रय कहो, स्व-स्वरूप संवेदन कहो या आत्मा का अनुभव कहो। यह एक ही ऐसा नियमरूप उपाय है। देखो! एक में से निकाला है। यही एक ऐसा नियमरूप उपाय है, जैसा कार्य या साध्य होता है, वैसा ही उसका कारण अथवा साधन होता है। कार्य निर्मल तो उसका साधन भी निर्मल, अन्य व्रतादि हैं वे तो मलिनभाव हैं। समझ में आया? साधन मलिन और साध्य निर्मल यह कोई यथार्थ उपाय
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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