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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) का' मोक्खह कारण एक्क' आत्मा की पवित्र वीतरागदशा और केवलज्ञान पाने को एक ही कारण आत्मा के आश्रय से ही चारित्र प्रगट होता है । व्यवहार, व्रत, नियम के, विनय, भक्ति आदि के भाव तो पराश्रितभाव हैं । पराश्रितभाव व्यवहार है - ऐसा कहा, सिद्ध किया, होता है । पूर्ण वीतराग न हो (वहाँ) ऐसा व्यवहार होता है परन्तु वह व्यवहार (हेय है)। दूसरी भाषा में कहा है कि तीन लोक में सार यह है, वह व्यवहार सार नहीं है • ऐसा कहा है । हैं ? २४७ मुमुक्षु - अनादि काल से व्यवहार में खड़ा है। उत्तर - खड़ा है, खड़ा रखेंगे नहीं, है उसे बतलाया । पडखे खड़ा रखा – ऐसा कहते हैं । दो, तीन बोल से तो चला आता है । २८ ( गाथार्थ) चला नहीं आया ? कहा न ? यह क्रम लिया न ? ३० में एकसाथ कहा, ३१ में निरर्थक कहा, ३२ में फल कहा, उसमें निरर्थक कहा था, इसमें फल कहा; है उसका फल संसार है। समझ में आया ? देखो, क्रमशः सब लिया है। ठीक लिया है । २८ में ऐसा लिया, त्रिलोक पूज्य आत्मा लिया था, तत्पश्चात् २९ में वहाँ से ऐसा लिया कि यह व्यवहार, मोक्षमार्ग नहीं; मिथ्यादृष्टि के व्रतादि मोक्षमार्ग नहीं - ऐसा कहा था। नहीं, इतने से रोका नहीं क्योंकि जहाँ तक आत्मा का अनुभव न करे, तब तक यह सब मोक्षमार्ग नहीं है। ऐसा कहकर ३० में ऐसा कहा कि दोनों साथ होते हैं, बात सिद्ध की। आत्मा स्वयं का स्वरूप श्रद्धा, ज्ञान, शान्ति से साधता है, तब ऐसा संयोग व्यवहार साथ में होता है - ऐसा कहकर ज्ञान कराया। पश्चात् यहाँ उड़ा दिया, अकेला व्यवहार ( निरर्थक है ) । यह निश्चय होवे तो उसे निमित्तपना लागू पड़ता है, नहीं तो अकेला व्यवहार अकृतार्थ है, कुछ कार्य नहीं करता.... आत्मा का कुछ कार्य नहीं करता, ऐसा । तब करता क्या है ? कि संसार । ३२ में स्पष्टीकरण किया है। मुमुक्षु – होता है - ऐसे खड़ा रखा है। उत्तर – खड़ा रखा है (अर्थात्) ज्ञान कराया है, ऐसा । खड़ा रखा अर्थात् ? है ऐसा ज्ञान कराया, खड़ा रखा अर्थात् है, ऐसा । (उसकी ) कीमत नहीं । वह है, उसका ज्ञान कराया है । व्यवहार से अनुकूलता, व्यवहार से अनुकूलता, हाँ ! निश्चय से प्रतिकूल है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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