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________________ २१६ गाथा-२८ त्रिलोक पूज्य जिन आत्मा ही है जो तइलोयहं झेउ जिणु सो अप्पा णिरू वुत्तु। णिच्छयणइ एमइ भणिउ एहउ जाणि णिभंतु॥२८॥ ध्यान योग्य त्रिलोक में, जिन सो आतम जान। निश्चय से यह जो कहा, तामें भ्रान्ति न मान॥२८॥ अन्वयार्थ - (जो तइलोयंह झेउ जिणु) जो तीन लोक के प्राणियों के द्वारा ध्यान करने योग्य जिन हैं ( सो अप्पा णिरू वुत्तु ) वह यह आत्मा ही निश्चय से कहा गया है (णिच्छयणइ एमइ भणिउ) निश्चयनय से ऐसा ही कहा है (एहउ णिभंतु जाणि) इस बात को सन्देह रहित जान। अब, त्रिलोक पूज्य जिन आत्मा ही है। २८, तीन लोक में पूज्य होवे तो यह भगवान स्वयं ही है। अपने लिये अपना आत्मा ही पूज्य है, आहा...हा...! जो तइलोयहं झेउ जिणु सो अप्पा णिरू वुत्तु। णिच्छयणइ एमइ भणिउ एहउ जाणि णिभंतु॥२८॥ आहा...हा... ! जो तीन लोक के प्राणियों द्वारा ध्यान करने योग्य जिन है.... यह भक्तों को ध्यान करने योग्य जिन है, वह तो भगवान आत्मा है। कहो, समझ में आया? परन्तु वह भगवान को पूजने का, मूर्ति पूजने का व्यवहार बीच में आता है न? आओ, वह कोई पूज्य परमार्थ से नहीं है; परमार्थ से पूज्य हो तो वहाँ से लक्ष्य हटकर अन्दर में लक्ष्य लाने की आवश्यकता नहीं पड़ती। आहा...हा...! वहीं का वहीं भगवान को और प्रतिमा को देखा करे। वहाँ से कल्याण है ? वे अन्य कहते हैं, भगवान के दर्शन से निधत और निकाचित (कर्म का अभाव होता है)। भगवान की मर्ति का दर्शन करे वह निधत. निकाचित तोड़े। अरे! ऐसा नहीं है। तीन लोक का नाथ पूज्य भगवान आत्मा है, उसके दर्शन से निधत और निकाचित कर्म का भुक्का उड़ जाता है – ऐसा भगवान आत्मा है।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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