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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) २१५ वह अनन्त भव की भावना है। भव करने का भाव तो राग है। आहा...हा...! समझ में आया? वह भावना दूसरे के कल्याण का निमित्त होगी। धूल भी नहीं होगी। मूढ़... मूढ़ फंस जायेगा, उलझ जायेगा, उलझ जायेगा, कहा। दुनिया को मीठा जहर जैसा लगे – ऐसा अच्छा... आहा...हा...! कितना परोपकारी लगता है यह ! तुम्हारे लिये हमारे एक-दो भव करना पड़े तो भले करना पड़े परन्तु (हमारा) अवतार तुम्हारे लिये, हमें जन्म लेकर उद्धार करना है। आहा...हा...! अन्य को लगे कि आहा...हा...! वे मूढ़ जैसे होते हैं। भिखारी हों और लाचार लड़का...आहा...हा...! अपने लिए अवतार लेकर भी उद्धार करने की भावना करते हैं, हाँ! मुमुक्षु – अपना बड़ा हितैषी है। उत्तर – नहीं, नहीं, वे मूर्ख तो ऐसा मानते हैं कि यह वास्तविक धर्म है। वास्तविक लगता है, अपना भले ही चाहे जो हो, वह पोषाता है। समझ में आया? जिसे हमारी दरकार है... आहा...हा...! श्रीमद् ने एक जगह लिखा है न? कि अमुक ने ऐसा माना कि हमारा चाहे जैसा हो परन्तु जैनशासन और जैनधर्म का लाभ होना चाहिए... ऐसा नहीं होता कभी। ऐसा यहाँ तो कहते हैं। आहा...हा...! किसे लाभ होता है ? होगा तो अन्दर में उसके कारण उसे लाभ होगा। तेरे कारण होगा? और तूने विकल्प उठाया, इसलिए उसे लाभ होगा? विकल्प उठाया, इसलिए उसे जरा भी लाभ है ? आहा...हा...! समझ में आया? कोई अज्ञानी व्यवहार धर्म में ही फंसे रहते हैं.... ऐसा कथन लिखा है, हाँ! कथन ठीक किया है। व्यवहार धर्म में ही सदा फँसे रहते हैं। यह पूजा, यह भक्ति, यह व्रत, यह समझाना, यह सुनना, पढ़ना, विचारना, चौबीस घण्टे संसार। अज्ञानी पण्डित का संसार शास्त्र (है।) उसे मानता है कि यह हम कुछ आगे जा रहे हैं, हम कुछ आगे जा रहे हैं। कहाँ आगे जाता है ? धूल... समझ में आया? व्यवहार धर्म में ही फंसे रहते हैं, निश्चय धर्म का लक्ष्य छोड़ देते हैं.... नीचे फिर अधिक लम्बा डाला है। समझ में आया? बहुत लम्बा किया है। ऐसा करना और वैसा करना, ऐसा करना और.... उसकी बात इसमें कहाँ है?
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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