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________________ गाथा-३ चार गति में रहना है और मजा करना है, दुःखी होना है, ऐसा (उनके लिये नहीं)। समझ में आता है ? संसारहं भयभीयाहं 'संसार' शब्द से चारों गति, हाँ ! जिसे स्वर्ग के सुख से भी भय हुआ है, क्योंकि स्वर्ग के सुखों की कल्पना, वह दुःख है। यह चक्रवर्ती का राज्य और बादशाह की एक दिन की अरबों रुपयों की आमदनी हो, वह (सुख की) कल्पना मानी है, वह दुःख है। आहा...हा...! उस दुःख से जिसे त्रास हुआ है कि अब यह दुःख नहीं, अब नहीं, अब नहीं। __ मुमुक्षु : यहाँ तो धर्म करके सुख मानते हैं ? उत्तर : धर्म करके वह पैदा करना चाहता है, ऐसा कहते हैं। धर्म करेंगे तो पैसे, रोटी से सुखी होंगे, भक्तामर जपेंगे, 'भक्तामर प्रणत मोलि मनी प्रभाना' इसलिए बोलते हैं ? नंगे, भूखे न रहें शरीर के ढंकनेवाले... कपड़े मिला करेंगे। सदा भिखारी रहा करेंगे, आहा...हा...! ऐ... चन्द्रकान्तभाई ! कितने ही बनिये प्रातःकाल उठकर भक्तामर करते हैं न? है? कहकहा लगाकर हँसते हैं उसमें, है? रोज बोलें कि जिससे सब समान रहे। धूल में भी नहीं रहता, सुन न ! अब बाहर में तो पुण्य होगा ऐसा रहेगा, मर जायेगा तो भी, लाख तेरे भक्तामर जप तो भी पूर्व के पुण्य अनुसार रहनेवाला है, बाकी बदलने का कुछ है नहीं। परन्तु मूढ़ अभी चार गति के दुःख से थका नहीं है। कहते हैं चार गति के दुःख से थका हो - ऐसे जीव के लिये यह मेरी बात है। आहा...हा... ! मोक्षार्थी के लिये मेरी यह बात है, है ? मुमुक्षु : दूसरे बोल में... उत्तर : वह बाद में कहेंगे। यहाँ तो पहले नास्ति से लेते हैं न? संसार का भय रखनेवाले, चार गति से त्रास (हुआ है) अरे... ! अवतार, अवतरित होना, वह दुःखरूप है। जन्म-मरण संयोग, वह सब दुःखरूप है। चार गति की प्राप्ति, यह इन्द्रपद की प्राप्ति भी दुःखरूप है, क्योंकि इन्द्रपद की प्राप्ति में लक्ष्य जाता है कि यह ठीक है, वह सब राग दुःखरूप है। आहा...हा...! समझ में आया? __(साधना में) कुछ कमी रही (हो) और पुण्य के कारण धर्मात्मा स्वर्ग में जाता है तब ऐसा देखता है कि अरे... ! हमारे राग बाकी रह गया, उसका पुण्य हो गया और उसमें
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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