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________________ योगसार प्रवचन (भाग-१) से दशा हुई। अभी चार बाकी है, इसलिए उन्हें अरहन्त कहते हैं। आठों अभाव हो गये हों, उन्हें सिद्ध कहते हैं। उन्हें नमस्कार करके... जिनेन्द्र के पदों को नमस्कार करके... 'सुइठ्ठ कव्व' क्या कहते हैं ? 'सुइठ्ठ कव्व' प्रिय काव्य कहूँगा... समझ में आया? काव्य को प्रियपने की उपमा दी है। यह काव्य कहूँगा न? यह काव्य-श्लोक; 'सुइट्ठ कव्व' सुन्दर प्रिय काव्य को कहता हूँ। जिसमें आत्मा का अधिक हित-मार्ग प्रवर्तित हो - ऐसे को मैं कहता हूँ। यह अरहन्त को नमस्कार किया। समझ में आया? पहचान कर किया है, हाँ! अब ग्रन्थ रचने की योग्यता बताते हैं। ग्रन्थ को कहने का निमित्त व प्रयोजन संसारहँ भयभीयाहं मोक्खहँ लालसियाहँ। अप्पासंबोहणकयइ कय दोहा एक्कमणाहं ॥३॥ इच्छक जो निज मुक्ति का, भव भय से डर चित्त। उन्हीं भव्य सम्बोध हित, रचा काव्य इक चित्त॥ अन्वयार्थ - (संसारहँ भयभीयाह) संसार का भय रखनेवालों के लिए व (मोक्खहँलालसियाहँ) मोक्ष की लालसा धारण करनेवालों के लिए (अप्पासंबोहण -कयइ) आत्मा का स्वरूप समझाने के प्रयोजन से ( एक्कमणाहं ) एकाग्र मन से (दोहा कय) दोहों की रचना की है। ग्रन्थ को कहने का निमित्त और प्रयोजन। तीसरा श्लोक संसारहँ भयभीयाहं मोक्खहँ लालसियाहँ। अप्पासंबोहणकयइ कय दोहा एक्कमणाहं॥३॥ आचार्य महाराज 'योगीन्द्रदेव' कहते हैं कि यह काव्य किसके लिये बनाता हूँ? कि संसार से भय रखनेवाले के लिये चार गति से भय प्राप्त हों उनके लिये है। जिन्हें
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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