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________________ १३० गाथा-१८ मुमुक्षु - ऐसा ध्यान न रखे तो तैयार किस प्रकार होंगे? उत्तर – धूल में भी तैयार नहीं होता, उसके काल में होना हो वह होता है। यह तो बात ही क्या कही? समीप नहीं... यहाँ तो धन्धे के परिणाम के काल में और धन्धे की क्रिया के काल में, यहाँ आत्मा है या नहीं? ऐसा यहाँ तो कहते हैं; या अकेला है वहाँ ? यहाँ धन्धे के राग के अशुभ परिणाम भले (हों) – हिंसा, झूठ, विषय आदि... और यह बाहर देह की क्रिया लिखना यह सब अजीव का कार्य वह अजीवतत्त्व की अवस्था की सत्ता है या नहीं? यहाँ रागादि धन्धे की सत्ता का भाव विकारी है या नहीं? उसके सामने पूरी त्रिकाली ज्ञायक सत्ता है या नहीं? समझ में आया? कहो, प्रवीणभाई! आहा...हा...! महान प्रभ चैतन्य, ज्ञान से भरपर समद्र प्रभ, आनन्द का महासागर - ऐसा आत्मद्रव्य तू स्वयं ही है। अब जहाँ तू है, वहाँ धन्धे के परिणाम के काल में तू कहाँ चला गया है? परन्तु तेरी नजर राग और पुण्य पर है; इसलिए तू उन्हें आदरणीय और करने योग्य मानता है परन्तु तेरी नजर राग और पुण्य पर है, इसलिए उन्हें तू आदरणीय और करने योग्य मानता है। यह भगवान ज्ञायकमूर्ति आत्मा पूर्णानन्द का नाथ वह मैं हूँ। रागादि होते हैं, देहादि की क्रिया तो जड़ की (क्रिया), जड़ का अस्तित्व है, परसत्ता है, परपदार्थ है; तो उसकी अवस्था तो होती ही है न? वह अवस्था कहीं मुझसे नहीं होती। समझ में आया? मुमुक्षु - आज तो बहुत सूक्ष्म आया? उत्तर – सूक्ष्म कहाँ है? जहाँ गृहस्थाश्रम में भी कोई कहे कि छूटने का मार्ग नहीं हो सकता – उसके लिये यह स्पष्टीकरण है। छूटने का मार्ग.... छूटा हुआ तत्त्व, ज्ञायकमूर्ति तू है और उसके स्वभाव के साधन द्वारा छूटने का उपाय हो सकता है, इसलिए धन्धे के परिणाम और बाह्य क्रिया द्वारा यह नहीं हो सकता – ऐसा नहीं है। शशीभाई ! आहा...हा...! परन्तु मूल तो प्रभाहीन होकर उसे गिना ही नहीं। आभाहीन... आभाहीन। वे सोटी से मारे न? आभा बिना का। यह देखता (नहीं) और इसे महिमा नहीं आती, परन्तु वह स्वयं ही है। जिनेश्वर कहो या आत्मा.... यहाँ आगे कहेंगे, जिन का ध्यान, जिन का ध्यान
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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