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________________ १०६ गाथा-१६ अप्पाईसण इक्क परु अण्ण किं पि वियाणि। मोक्खह कारण जोईया णिच्छह एहउ जाणि॥१६॥ हे धर्मात्मा ! ऐसा शब्द कहा। 'योगी' कहा न? योगी अर्थात् हे धर्मी! अप्पा दंसण इक्क – यह आत्मा का दर्शन, वह एक ही दर्शन, वह मोक्ष का मार्ग है। कुछ समझ में आया? आत्मा एक समय में अनन्त शुद्ध गुण सम्पन्न प्रभु, ऐसा आत्मा, उसका दर्शन। अप्पा दंसण इक्क - यह आत्मा... शास्त्र पद्धति से पहले आत्मा को जानकर, शास्त्र की रीति से सर्वज्ञ के कथन द्वारा वह 'आत्मा कैसा है' - ऐसा जानकर, फिर करना क्या? कि भगवान आत्मा अप्पा दंसण इस शुद्ध अभेद चैतन्य प्रभु में एकाकार (होना) । मन -वचन और काया की क्रिया से भिन्न, पुण्य-पाप के विकल्प के राग से पृथक् तथा गुणी और गुण के भेद भी वहाँ काम नहीं करते। जहाँ आत्मा का दर्शन अर्थात् सम्यग्दर्शन है। वहाँ मन की पहुँच नहीं, वाणी की गति नहीं, वहाँ काया की चेष्टा काम नहीं करती। समझ में आया? मन की जहाँ गति नहीं, वाणी का वहाँ प्रयोग नहीं, काया की वहाँ चेष्टा नहीं, विकल्प का वहाँ अवकाश नहीं और गुणी आत्मा अनन्त गुण का पिण्ड, सर्वज्ञ ने देखा, हुआ कहा हुआ; उसके गुणी और गुण के भेद (का) भी जहाँ स्थान नहीं - अवलम्बन नहीं, आधार नहीं - ऐसा आत्मा, अभेद अखण्डस्वरूप का अन्तर दर्शन करना, प्रतीति करना – इसका नाम एक ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है। इसका नाम एक ही सम्यग्दर्शन कहा जाता है। समझ में आया? कहो, रतिभाई! __ अप्पा दंसण इक्क - है न? एक आत्मा का दर्शन, मोक्ष का मार्ग। फिर सम्यग्दर्शन एक ही मोक्ष का मार्ग है, ऐसा । ज्ञान और चारित्र, यह अनुभव में आ गये। आत्मा दर्शन, अनुभव। एक समय में पूर्ण शुद्ध, उसे अनुसर कर अभेद का अनुभव करना - ऐसा जो आत्मदर्शन, वह एक; वह एक ही। दूसरा सम्यग्दर्शन, दूसरा प्रकार है – ऐसा नहीं, यह कहते हैं। समझ में आया? अप्पा दंसण इक्क – अभी इतना शब्द पड़ा है। भगवान आत्मा, जिसे अप्पा कहते हैं, एकस्वरूप अभेद चैतन्य, उसे आत्मा कहते हैं। उसका दर्शन, उसकी अन्तर में अनुभव करके प्रतीति करना, वह एक ही अप्पा दंसण
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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