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________________ आत्मदर्शन ही मोक्ष का कारण है अप्पादंसण इक्क परु अण्ण किं पि वियाणि। मोक्खह कारण जोईया णिच्छह एहउ जाणि॥१६॥ निज दर्शन ही श्रेष्ठ है, अन्य न किञ्चित् मान। हे योगी! शिव हेतु अब, निश्चय तू यह जान॥ अन्वयार्थ – (जोईया) हे योगी! (इक्क अप्पादंसण मोक्खह कारण) एक आत्मा का दर्शन ही मोक्ष का मार्ग है (अण्णु परु ण किं पि वियाणि) अन्य कुछ भी मोक्षमार्ग नहीं है - ऐसा जान (णिच्छह एहउ जाणि) निश्चयनय से तू ऐसा ही समझ। वीर संवत २४९२, ज्येष्ठ कृष्ण ९, गाथा १६ से १७ रविवार, दिनाङ्क १२-०६-१९६६ प्रवचन नं.६ 'योगीन्द्रदेव' कृत 'योगसार' है। 'योगसार' का वास्तविक अर्थ तो यह है – योग अर्थात् व्यापार; आत्मस्वभाव का व्यापार, उसका सार । वास्तविक मोक्ष का मार्ग। योग अर्थात् जुड़ान। चैतन्यस्वरूप एक समय में पूर्ण शुद्ध द्रव्यस्वभाव, उसके साथ जुड़ान करना, उसमें एकाग्र होना, उसे यहाँ योग कहते हैं। उसमें भी यह 'सार' अर्थात् परमार्थ मोक्ष के मार्ग की व्याख्या है। उसमें भी इस सोलहवीं गाथा में तो बहुत उत्कृष्ट बात है, अर्थात् ऐसी सच्ची बात है। सोलहवीं गाथा है न यह? आत्मदर्शन ही मोक्ष का कारण है। पुस्तक मिली सबको? इस श्लोक, शब्द का क्या अर्थ होता है – इतना ख्याल में रखना। इसमें तो अकेले शब्द हैं।
SR No.009481
Book TitleYogsara Pravachan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendra Jain
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust
Publication Year2010
Total Pages496
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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