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________________ जिससे वह गुणश्रेणी निर्जरा द्वारा गुणस्थानक आरोहण करतेकरते आगे शुक्लध्यानरूप अग्नि से सर्व घातिकर्मों का नाश करके, केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करता है और अनुक्रम से सिद्धत्व को पाता है। अन्यमति के ध्यान, जैसे कि कोई एक बिंदु पर एकाग्रता कराता हो, तो कोई श्वासोच्छ्वास पर एकाग्रता कराता हो अथवा तो अन्य किसी प्रकार कराता हो, परंतु जिससे देहाध्यास ही दृढ़ होता हो, ऐसा कोई भी ध्यान वास्तव में तो आर्तध्यानरूप ही हैं। ऐसे ध्यान से मन को थोड़ीसी शांति मिलती होने से लोग ठगाये जाते हैं और उसे ही सच्चा ध्यान मानने लगते हैं। दूसरे, श्वासोच्छ्वास देखने से और उसका अच्छा अभ्यास हो, उसे कषाय का उद्भव हो, उसकी जानकारी होने पर भी, स्वयं कौन है, उसका स्वात्मानुभूतिपूर्वक का ज्ञान नहीं होने से, ये सब ध्यान आर्तध्यानरूप ही परिणमते हैं। वैसे आर्तध्यान का फल है तिर्यंचगति। जबकि क्रोध, मान, माया-कपटरूप ध्यान, वह रौद्रध्यान है और उसका फल है नरकगति। धर्मध्यान के अंतर्भेदों में भी आत्मा ही केंद्र में है, इसलिए ही उसे सम्यक् ध्यान कहा जाता है। __कोई ऐसा मानते हों कि सम्यग्दर्शन, ध्यान के बिना नहीं होता तो उन्हें यह समझना आवश्यक है कि सम्यग्दर्शन, भेदज्ञान के बिना होता ही नहीं, ध्यान के बिना तो होता है। सुखी होने की चाबी *१७
SR No.009477
Book TitleSukhi hone ki Chabi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh Mohanlal Sheth
PublisherShailesh Punamchand Shah
Publication Year
Total Pages59
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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