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________________ श्रावक की जीवनधारा श्रावक की जीवनधारा समस्त जगत दो धाराओं में विभक्त है - एक भौतिक दूसरी आध्यात्मिक । भौतिक धारा का प्रवाह पूर्ण स्वच्छन्दता की ओर अग्रसर है, जिसकी चरम परिणति से सारा विश्व त्रस्त है। आध्यात्मिक ज्योति भी अपनी क्षीणतम स्थिति में टिमटिमा रही है। दोनों की स्थिति क्या है, इसकी अपेक्षा दोनों की परिणति क्या है, इसका निर्णय अधिक महत्व रखता है। प्रश्न यह नहीं है कि कौन-सी धारा तेज है और कौन-सी मन्द? प्रश्न यह है कि दोनों की प्रकृति क्या है? भौतिक धारा भोगमय धारा है। असीम और अनन्त भोग ही उसका लक्ष्य है। आध्यात्मिक धारा त्यागमय धारा है और सर्व पर का त्याग एवं एक आत्मनिष्ठता ही उसका सर्वस्व है। दोनों ही धाराएँ एकदम परस्पर विरुद्ध पथानुगामी हैं। एक कहती है कि भोग और आनन्द में सीमा कैसी, सीमा की बाधा में रहते हुए तृप्ति कहाँ तथा तृप्ति बिना आनन्द कैसा; दूसरी कहती है कि भोग में आनन्द कैसा, आनन्द तो आत्मा की वस्तु है; अतः आनन्द प्राप्ति के मार्ग में भोग का कोई स्थान नहीं है। तात्पर्य यह है कि भौतिक धारा को भोग में तनिक भी मर्यादा स्वीकार नहीं तथा आध्यात्मिक धारा को भोग की अणु मात्र भी उपस्थिति स्वीकार नहीं है। एक निर्बाध भोग चाहती है, दूसरी अणुमात्र भी भोग स्वीकार नहीं करती। एक का स्वामी उन्मक्त भोगी होता है और दूसरे का स्वामी पूर्ण विरागी योगी। परस्पर विरुद्ध पथानुगामिनी उक्त दोनों धाराओं के अद्भुत सम्मिलन का नाम ही श्रावक धर्म की स्थिति है। श्रावक भोगों का पूर्ण त्यागी न होकर भी उनकी मर्यादा अवश्य स्थापित करता है। श्रावक धर्म योग पक्ष और भोग पक्ष का अस्थायी समझौता है, जिसकी धारा में पंचाणुव्रत और सप्तशील व्रत हैं। भोग पक्ष कहता है अपनी सुख (भोग) सामग्री की प्राप्ति के लिए कितनी भी हिंसा क्यों न करनी पड़े, करनी चाहिए। तब योग (अध्यात्म) पक्ष कहता है, हिंसा से प्राप्त होने वाला भोग हमें चाहिए ही नहीं अथवा भोग स्वयं हिंसा है; अतः हमें उसकी आवश्यकता ही नहीं है। सुख हमारे भीतर है, उसे बाहर खोजने की आवश्यकता नहीं है। तब एक समझौता होता है कि भाई यह सही है कि हमें भोगों की आवश्यकता नहीं, पर वर्तमान कमजोरी के कारण जो भौतिक अनिवार्य भोजनपानादि की आवश्यकतायें है; उन्हें पूर्ण करने हेतु कुछ सामग्री तो चाहिए ही। इसीप्रकार भोगों की अनन्त इच्छायें तो कभी पूर्ण हो नहीं सकतीं; अतः अमर्यादित भोगों को इकट्ठा करने के लिए हिंसा की अनुमति तो दी नहीं जा सकती। मध्यम मार्ग के रूप में गृहस्थ जीवन के लिए अनिवार्य आवश्यक आरम्भी, उद्योगी एवं विरोधी हिंसाभाव को छोड़कर बाकी हिंसा भाव का पूर्णतः त्याग करना चाहिए। ___ इसी का नाम अहिंसाणुव्रत है। इसीप्रकार सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के बारे में भी जानना चाहिए। गृहस्थी को न्यायपूर्वक चलाने के लिए यदि कोई अनिवार्य सूक्ष्म असत्य वचन का आश्रय लेना पड़े तो अलग बात है, अन्यथा स्थूलरूप से समस्त असत्य वचन बोलने के भाव का त्याग होना ही सत्याणुव्रत है। जिसका कोई स्वामी न हो, ऐसी मिट्टी और जल को छोड़कर और कोई भी पदार्थ उसके लौकिक स्वामी की अनुमति बिना ग्रहण करने का भाव नहीं होना अचौर्याणुव्रत है। धर्मानुकूल विवाहित स्वपत्नी अथवा स्वपति को छोड़कर अन्य में रतिभाव का न होना ही ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इसीप्रकार अति आवश्यक सामग्री को मर्यादापूर्वक रखकर और समस्त परिग्रह को रखने और रखने के भाव का त्याग कर देना ही परिग्रहपरिमाणअणुव्रत है। उक्त पाँचों व्रतों को ही पंचाणुव्रत कहते हैं । उक्त पंचाणुव्रतों के साथ
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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