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________________ ४४ मैं कौन हूँ? प्रमाण और नय हैं साधन जिसके, ऐसा अनेकान्त भी अनेकान्त स्वरूप है; क्योंकि सर्वांशग्राही प्रमाण की अपेक्षा वस्तु अनेकान्तस्वरूप एवं अंशग्राही नय की अपेक्षा वस्तु एकान्तरूप सिद्ध है।" जैनदर्शन के अनुसार एकान्त भी दो प्रकार का होता है और अनेकान्त भी दो प्रकार का ह्न यथा सम्यक् एकान्त और मिथ्या एकान्त, सम्यक् अनेकान्त और मिथ्या अनेकान्त । निरपेक्ष नय मिथ्या एकान्त है और सापेक्ष नय सम्यक् एकान्त है तथा सापेक्ष नयों का समूह अर्थात् श्रुतप्रमाण सम्यक् अनेकान्त है और निरपेक्ष नयों का समूह अर्थात् प्रमाणाभास मिथ्या अनेकान्त है। कहा भी है ह्न "जं वत्थु अणेयन्तं, एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं । सुयणाणेय णएहि य, णिरवेक्खं दीसदे णेव ।। जो वस्तु अनेकान्तरूप है, वही सापेक्ष दृष्टि से एकान्तरूप भी है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा अनेकान्तरूप है और नयों की अपेक्षा एकान्तरूप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का रूप नहीं देखा जा सकता है।" अनेकान्त में अनेकान्त की सिद्धि करते हुए अकलंकदेव लिखते हैं ह्न ___ “यदि अनेकान्त को अनेकान्त ही माना जाय और एकान्त का सर्वथा लोप किया जाय तो सम्यक् एकान्त के अभाव में, शाखादि के अभाव में वृक्ष के अभाव की तरह, तत्समुदायरूप अनेकान्त का भी अभाव हो जायेगा। अत: यदि एकान्त ही स्वीकार कर लिया जावे तो फिर अविनाभावी इतर धर्मों का लोप होने पर प्रकृत शेष का भी लोप होने से सर्व लोप का प्रसंग प्राप्त होगा।" सम्यगेकान्त नय है और सम्यगनेकान्त प्रमाण । अनेकान्तवाद अनेकान्त और स्याद्वाद ४५ सर्वनयात्मक है। जिसप्रकार बिखरे हुए मोतियों को एक सूत्र में पिरो देने से मोतियों का सुन्दर हार बन जाता है; उसीप्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वादरूपी सूत में पिरो देने से सम्पूर्ण नय श्रुतप्रमाण कहे जाते हैं।' परमागम के बीजस्वरूप अनेकान्त में सम्पूर्ण नयों (सम्यक् एकान्तों) का विलास है, उसमें एकान्तों के विरोध को समाप्त करने की सामर्थ्य है; क्योंकि विरोध वस्तु में नहीं, अज्ञान में है। जैसे ह्र एक हाथी को अनेक जन्मान्ध व्यक्ति छूकर जानने का यत्न करें और जिसके हाथ में हाथी का पैर आ जाय वह हाथी को खम्भे के समान, पेट पर हाथ फेरनेवाला दीवाल के समान, कान पकड़नेवाला सूप के समान और सूंड पकड़नेवाला केले के स्तम्भ के समान कहे तो वह सम्पूर्ण हाथी के बारे में सही नहीं होगा; क्योंकि देखा है अंश और कहा गया सर्वांश को। यदि अंश देखकर अंश का ही कथन करें तो गलत नहीं होगा। जैसे ह्र यदि यह कहा जाय कि हाथी का पैर खम्भे के समान है, कान सूप के समान हैं, पेट दीवाल के समान है तो कोई असत्य नहीं; क्योंकि यह कथन सापेक्ष है और सापेक्ष नय सत्य होते हैं। अकेला पैर हाथी नहीं है, अकेला पेट भी हाथी नहीं है; इसीप्रकार कोई भी अकेला अंग अंगी को व्यक्त नहीं कर सकता है। __ 'स्यात्' पद के प्रयोग से यह स्पष्ट हो जाता है कि यहाँ जो कथन किया जा रहा है, वह अंश के संबंध में है; पूर्ण वस्तु के संबंध में नहीं। हाथी और हाथी के अंगों के कथन में 'ही' और 'भी' का प्रयोग इसप्रकार होगाह्न हाथी किसी अपेक्षा दीवाल के समान भी है, किसी अपेक्षा खम्भे समान भी है और किसी अपेक्षा सूप के समान भी है। यहाँ अपेक्षा बताई नहीं गई है, मात्र इतना कहा गया है कि 'किसी अपेक्षा'; अत: 'भी' लगाना आवश्यक हो गया। यदि हम अपेक्षा बताते जावें तो 'ही' लगाना १. स्याद्वादमंजरी, श्लोक ३० की टीका २. पुरुषार्थसिद्ध्युपाय, श्लोक २ १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गाथा २६१ २. तत्त्वार्थ राजवार्तिक, अ. १, सूत्र ६ की टीका ३. वही, अ.१ सूत्र ६ की टीका
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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