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________________ मैं कौन हूँ ? सकता है? अतः वीतराग भाव ही अहिंसा है, वस्तु का स्वभाव होने से वही धर्म है और मुक्ति का कारण भी वही है । बचाने के भाव को हिंसा कहने में एक और रहस्य अन्तर्गर्भित है। वह यह है कि जब कोई अज्ञानी जीव किसी अन्य जीव को वस्तुतः मार तो सकता नहीं, किन्तु मारने की बुद्धि करता है; तब उसकी वह बुद्धि तथ्य के विपरीत होने से मिथ्या है। उसीप्रकार जब कोई जीव किसी को बचा तो नहीं सकता, किन्तु बचाने की बुद्धि करता है; तब उसकी यह बचाने की बुद्धि भी उससे कम मिथ्या नहीं है। मिथ्या होने में दोनों में समानता है । मिथ्यात्व सबसे बड़ा पाप है, जो दोनों में समान रूप से विद्यमान है। तो भी बचाने का भाव पुण्यबंध का कारण है और मारने का भाव पापबंध का कारण है। ये दोनों प्रकार के भाव भूमिकानुसार ज्ञानियों में भी पाए जाते हैं। यद्यपि उनकी श्रद्धा में वे हेय ही हैं; तथापि चारित्र की कमजोरी के कारण आए बिना भी नहीं रहते। ३४ उक्त तथ्य को पण्डित टोडरमलजी इसप्रकार व्यक्त करते हैं ह्र “सर्व जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख अपने कर्म के निमित्त से होते हैं। जहाँ अन्य जीव के इन कार्यों का कर्त्ता हो, वही मिथ्याध्यवसाय बन्ध का कारण है। वहाँ अन्य जीवों को जिलाने का अथवा सुखी करने का अध्यवसाय हो, वह तो पुण्य बन्ध का कारण है और मारने का अथवा दुःखी करने का अध्यवसाय हो, वह पापबन्ध का कारण है। इसप्रकार अहिंसावत् सत्यादिक तो पुण्यबन्ध के कारण है और हिंसावत् असत्यादिक पापबन्ध के कारण है। ये सर्व मिथ्याध्यवसाय है, वे त्याज्य हैं। इसलिये हिंसादिवत् अहिंसादिक को भी बन्ध का कारण जानकर हेय ही मानना । हिंसा में मारने की बुद्धि हो; परन्तु उसकी आयु पूर्ण हुए बिना मरता नहीं है, यह अपनी द्वेषपरिणति से आप ही पाप बाँधता है। अहिंसा में रक्षा करने की बुद्धि हो; परन्तु उसकी आयु अवशेष हुए बिना वह जीता 18 अहिंसा ३५ नहीं है, यह अपनी प्रशस्त रागपरिणति से आप ही पुण्य बाँधता है । इसप्रकार यह दोनों हेय है; जहाँ वीतराग होकर दृष्टाज्ञातारूप प्रवर्ते, वहाँ निर्बन्ध है; सो उपादेय है। सो ऐसी दशा न हो तब तक प्रशस्तरागरूप प्रवर्तन करो; परन्तु श्रद्धान तो ऐसा रखो कि यह भी बन्ध का कारण है, हेय है; श्रद्धान में इसे मोक्षमार्ग जाने तो मिथ्यादृष्टि ही होता है। " जैनदर्शन के अनेकान्तिक दृष्टिकोण में उपर्युक्त अहिंसा के सम्बन्ध में यह आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है कि यदि उक्त अहिंसा को ही व्यवहारिक जीवन में उपादेय मान लेंगे तो फिर देश, समाज, घरबार; यहाँ तक कि अपनी माँ-बहिन की इज्जत बचाना भी सम्भव न होगा; क्योंकि प्रथम तो 'कोई व्यक्ति किसी का जीवन-मरण, सुख-दुःख कर ही नहीं सकता', इस सत्य की स्वीकृति के उपरान्त यह प्रश्न उठना ही नहीं चाहिए; दूसरे भूमिकानुसार ज्ञानी जीवों के भी रक्षा आदि के भाव बुद्धिपूर्वक आए बिना नहीं रहते। ज्ञानी गृहस्थों के जीवन में अहिंसा और हिंसा का क्या रूप विद्यमान रहता है, इसका विस्तृत वर्णन जैनाचार ग्रन्थों में मिलता है तथा उसके प्रायोगिक रूप के दर्शन जैनपुराणों के परिशीलन से किए जा सकते हैं। यहाँ उसकी विस्तृत समीक्षा के लिए अवकाश नहीं है। गृहस्थ जीवन में विद्यमान हिंसा और अहिंसा को स्पष्ट करते हुए जैनाचार्यों ने हिंसा का वर्गीकरण चार रूपों में किया है ह्र १. संकल्पी हिंसा २. उद्योगी हिंसा ३. आरम्भी हिंसा ४. विरोधी हिंसा केवल निर्दय परिणाम ही हेतु हैं जिसमें ऐसे संकल्प ( इरादा ) पूर्वक किया गया प्राणघात संकल्पी हिंसा है। व्यापारिक कार्यों में तथा गृहस्थी के आरंभादि कार्यों में सावधानी वर्तते हुए भी जो हिंसा हो जाती है, वह १. मोक्षमार्गप्रकाशक, पृष्ठ २२६
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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