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________________ ३० अज्ञानमेतदधिगम्य परात्परस्य पश्यंति ये मरणजीवितदुःखसौख्यम् । कर्माण्यहंकृतिरसेन चिकीर्षवस्ते मैं कौन हूँ ? मिथ्यादृशो नियतमात्मनो भवति ।। १६९ ।। इस जगत में जीवों के जीवन-मरण, सुख-दुःख - यह सब सदैव नियम से अपने द्वारा उपार्जित कर्मोदय से होता है। 'दूसरा पुरुष इसके जीवन-मरण, सुख-दुःख का कर्ता है' - यह मानना तो अज्ञान है। जो पुरुष पर के जीवन-मरण, सुख-दुःख का कर्त्ता दूसरों को मानते हैं; अहंकार रस से कर्मोदय को करने के इच्छुक वे पुरुष नियम से मिथ्यादृष्टि हैं और अपने आत्मा का घात करने वाले हैं। उक्त कथनों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि जैनाचार्यों को यह कदापि स्वीकार्य नहीं है कि कोई व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति को मार या बचा सकता है अथवा दुःखी या सुखी कर सकता है। जब कोई किसी को मार ही नहीं सकता और मरते को बचा भी नहीं सकता है तो फिर 'मारने का नाम हिंसा और बचाने का नाम अहिंसा' यह कहना क्या अर्थ रखता है? द्रव्यस्वभाव से आत्मा की अमरता एवं पर्याय के परिवर्तन में स्वयं के उपादान एवं कर्मोदय को निमित्त स्वीकार कर लेने के बाद एक प्राणी द्वारा दूसरे प्राणी का वध और रक्षा करने की बात में कितनी सच्चाई रह जाती है। ह्न यह एक सोचने की बात है। अतः यह कहा जा सकता है कि न मरने का नाम हिंसा है न मारने का, इसीप्रकार न जीने का नाम अहिंसा है न जिलाने का । हिंसा-अहिंसा का संबंध सीधा आत्मपरिणामों से है। वे दोनों आत्मा के ही विकारी- अविकारी परिणाम हैं। जड़ में उनका जन्म नहीं होता । यदि कोई पत्थर किसी प्राणी पर गिर जाय और उससे उसका मरण हो जाय तो पत्थर को हिंसा नहीं होती; किन्तु कोई प्राणी किसी को मारने का 16 अहिंसा ३१ विकल्प करे तो उसे हिंसा अवश्य होगी, चाहे वह प्राणी मरे या न मरे । हिंसा-अहिंसा जड़ में नहीं होती, जड़ के कारण भी नहीं होती। उनका उत्पत्ति स्थान व कारण दोनों ही चेतन में विद्यमान हैं। चिद्विकार होने से झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह - संग्रह के भाव भी हिंसा के ही रूपान्तर हैं। आचार्य अमृतचन्द्र के शब्दों में ह्र " आत्मपरिणाम हिंसनहेतुत्वात्सर्वमेव हिंसैतत् । अनृतवचनादिकेवलमुदाहृतं शिष्यबोधाय ।।' आत्मा के शुद्ध परिणामों के घात होने से झूठ, चोरी, आदि सभी हिंसा ही हैं; भेद करके तो मात्र शिष्यों को समझाने के लिए कहे गये हैं।" वस्तुतः हिंसा-अहिंसा का सम्बन्ध पर जीवों के जीवन-मरण, सुखदुःख से न होकर आत्मा में उत्पन्न होने वाले राग-द्वेष- मोह परिणामों से है । पर के कारण आत्मा में हिंसा उत्पन्न नहीं होती। कहा भी है ह्र “सूक्ष्मापि न खलु हिंसा परवस्तुनिबन्धना भवति पुंसः हिंसायतननिवृत्तिः परिणामविशुद्धये तदपि कार्या ।। यद्यपि पर-वस्तु के कारण रंच मात्र भी हिंसा नहीं होती है; तथापि परिणामों की शुद्धि के लिए हिंसा के स्थान परिग्रहादि को छोड़ देना चाहिए; क्योंकि जीव चाहे मरे या न मरे ह्न अयत्नाचार (अनर्गल ) प्रवृत्ति वालों को बंध होता है। सो ही कहा है ह्र मरदु व जियदु जीवो अयदाचारस्य णिच्छिदा हिंसा । पयदस्स णत्थि बंधो हिंसामेत्तेण समिदस्स ।। जीव मरे या जिये अप्रयत आचरण वाले के अंतरंग हिंसा निश्चित है। प्रयत के, समिति वाले के बहिरंग हिंसा मात्र से बंध नहीं है। " २. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, छन्द ४९ १. पुरुषार्थसिद्धयुपाय, छन्द ४२ ३. आचार्य कुन्दकुन्द : प्रवचनसार गाथा २१७
SR No.009476
Book TitleSukh kya Hai
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages42
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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