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________________ .१७ शाश्वत तीर्थधाम सम्मेदशिखर होता है। जैसा एकान्त इन पर्वत की चोटियों पर उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र कहीं भी नहीं। __कुछ लोग समझते हैं कि पर्वत की चोटी पर जेठ की दुपहरी में कठोर तपस्या करने से, शरीर को सुखाने से कर्मों का नाश होता है; पर इस बात में कोई दम नहीं है; क्योंकि देह को सुखाने से कर्म नहीं कटते, कर्मों का नाश तो आत्माराधना से होता है, आत्मसाधना से होता है। आत्मसाधना और आत्माराधना आत्मज्ञान और आत्मध्यान के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। पर और पर्याय से भिन्न त्रिकाली ध्रुव निज भगवान आत्मा के जानने का नाम ही आत्मज्ञान है, सम्यग्ज्ञान है; उसमें ही अपनापन स्थापित होने का नाम सम्यग्दर्शन है और उसमें ही लीन हो जाने, समा जाने का नाम सम्यक्चारित्र है। यह सम्यक्चारित्र वस्तुतः तो आत्मध्यानरूप ही होता है। इसमें शरीर के सुखाने का कहीं कोई स्थान नहीं है। यदि यह बात है तो फिर वही प्रश्न उभर कर आता है कि हमारे तीर्थंकर और साधुजनों ने ऐसा स्थान और इतना प्रतिकूल वातावरण ध्यान के लिए क्यों चुना ? हम देखते हैं कि सम्मेदशिखर के जिस स्थान से तीर्थंकरों ने मुक्ति प्राप्त की है; वहाँ कहीं-कहीं तो इतना ही स्थान नहीं है कि कोई दूसरा व्यक्ति खड़ा भी हो सके । चोटियों को देखकर लगता है कि सभी स्थान लंगभग ऐसे ही रहे होंगे। यह बात अलग है कि आज हमने अपनी सुविधा के लिए उन्हें कुछ इसप्रकार परिवर्तित कर दिया है कि जिससे कुछ लोग वहाँ एकत्रित हो जाते हैं। वस्तुतः बात यह है कि हमारे सन्त ध्यान के लिए, बैठने के लिए भी ऐसा ही स्थान चुनते हैं कि जहाँ बगल में कोई दूसरा व्यक्ति बैठ ही न सके; क्योंकि बगल में यदि कोई दूसरा बैठेगा तो वह बात किए बिना नहीं रहेगा और वे किसी से बात करना ही नहीं चाहते हैं। बातचीत पर से
SR No.009475
Book TitleShashvat Tirthdham Sammedshikhar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2009
Total Pages33
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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