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________________ 369 गाथा १६१-१६३ उसके उदय से ज्ञान (आत्मा) के अचारित्रपना होता है। इसलिए यहाँ मोक्ष का तिरोधायी होने से कर्म का निषेध किया गया है।" ___ इसीप्रकार का भाव तात्पर्यवृत्ति में भी है। इसप्रकार गाथा और टीकाओं का निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारणरूप भाव हैं और इनके प्रतिबंधक मिथ्यात्वादिभाव हैं, जो स्वयं ही कर्मरूप हैं। यही कारण है कि कर्मरूप समस्त शुभाशुभभावों का मुक्तिमार्ग में निषेध किया गया है। उक्त सन्दर्भ में स्वामीजी का स्पष्टीकरण इसप्रकार है - "वस्तुतः शुभभाव स्वयं मिथ्यात्व नहीं है, बल्कि शुभभाव को अपना मानना मिथ्यात्व है। तथा मिथ्यात्वसहित ज्ञान व आचरण अज्ञान व अचारित्र हैं। देखो, शुद्ध सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान आत्मा का अनुभव करके प्रतीति करना सम्यक्त्व है और यह सम्यक्त्व मोक्ष का कारणरूप स्वभाव है। यहाँ स्वभाव का अभिप्राय त्रिकाली स्वभाव से नहीं है, किन्तु सम्यग्दर्शन पर्याय की बात है। सम्यक्त्व मोक्ष का कारणरूप स्वभाव है और उसे रोकने वाला मिथ्यात्व है। यहाँ मिथ्यात्व अर्थात् जीव के परिणाम की बात है, मिथ्यात्व कर्म की नहीं। कर्म के निमित्त से तो कथन किया जाता है। वस्तुतः तो तत्त्व के अश्रद्धानरूप मिथ्यात्वभाव ही सम्यक्त्व का रोकने वाला है, प्रतिबन्धक कारण है; जड़कर्म मोक्षमार्ग का अर्थात् सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का प्रतिबन्धक नहीं है; क्योंकि वह तो परद्रव्य है। यहाँ गाथा में मिथ्यात्वादि के उदय की जो बात कही है, उसका अर्थ यह है कि शुद्ध चैतन्यघनस्वरूप भगवान आत्मा की प्रतीतिरूप श्रद्धान से विपरीत परिणमन होना ही मिथ्यात्व का उदय है। यथा पुण्य से धर्म होता है, निमित्त से आत्मा में लाभ-हानि होती है, मैं दूसरों का भला-बुरा कर सकता हूँ या दूसरे लोग मेरा भला-बुरा कर सकते है - यह मान्यता ही सम्यक्त्व के विरुद्ध है और यह विरुद्धभावरूप परिणमन ही मिथ्यात्व है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १६१ २. वही, पृष्ठ १६२
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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