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________________ समयसार गाथा १६१ से १६३ सम्मत्तपडिणिबद्धं मिच्छत्तं जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोदयेणजीवो मिच्छादिट्टि त्ति णादव्वो ॥१६१॥ णाणस्स पडिणिबद्धं अण्णाणं जिणवरेहि परिकहियं । । तस्सोदयेण जीवो अण्णाणी होदि णादव्वो ॥१६२॥ चारित्तपडिणिबद्धं कसायं जिणवरेहि परिकहियं । तस्सोदयेण जीवो अचरित्तो होदि णादव्वो ॥१३॥ सम्यक्त्व प्रतिबन्धक करम मिथ्यात्व जिनवर ने कहा। उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है सदा ॥१६१॥ सद्ज्ञान प्रतिबन्धक करम अज्ञान जिनवर ने कहा । उसके उदय से जीव अज्ञानी बने - यह जानना ॥१६२॥ चारित्र प्रतिबन्धक करम जिन ने कषायों को कहा । उसके उदय से जीव चारित्रहीन हो - यह जानना ॥ १६३॥ सम्यक्त्व का प्रतिबन्धक मिथ्यात्व है। - ऐसा जिनवरों ने कहा है। उसके उदय से जीव मिथ्यादृष्टि होता है। - ऐसा जानना चाहिए। ज्ञान का प्रतिबन्धक अज्ञान है। - ऐसा जिनवरों ने कहा है - उसके उदय से जीव अज्ञानी होता है। ऐसा जानना चाहिए। चारित्र का प्रतिबंधक कषाय है। - ऐसा जिनवरों ने कहा है। उसके उदय से जीव अचारित्रवान होता है। - ऐसा जानना चाहिए। इन सीधी-सरल गाथाओं का सीधा-सरल भाव आत्मख्याति में इसप्रकार व्यक्त किया गया है - __ "मोक्ष के कारणभूत सम्यक्त्वस्वभाव का प्रतिबंधक मिथ्यात्व है। वह स्वयं कर्म ही है और उसके उदय से ही ज्ञान (आत्मा) के मिथ्यादृष्टिपना होता है। मोक्ष के कारणभूत ज्ञानस्वभाव का प्रतिबंधक अज्ञान है। वह स्वयं कर्म ही है और उसके उदय से ज्ञान (आत्मा) के अज्ञानीपना होता है। मोक्ष के कारणभूत चारित्रस्वभाव की प्रतिबंधक कषाय है। वह स्वयं कर्म ही है और
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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