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________________ 360 समयसार अनुशीलन तीसरे कलश के भाव को उन्होंने शिष्य-गुरु के संवाद के रूप में प्रस्तुत किया है, जो इसप्रकार है - ___ ( सवैया इकतीसा ) कोऊ शिष्य कहै स्वामी ! असुभक्रिया असुद्ध, सुभक्रिया सुद्ध तुम ऐसी क्यों न वरनी । गुरु कहै जबलौं क्रिया के परिनाम हैं, तबलौं चपल उपयोग जोग धरनी ॥ विरता न आवै तोलौं सुद्ध अनुभौ न होई, यातॆ दोऊ क्रिया मोख-पंथ की कतरनी। बंध की करैया दोऊ दूहूमें न भली कोऊ, बाधक विचारि मैं निसिद्ध कीनी करनी ॥ १२॥ कोई शिष्य कहता है कि हे स्वामी। आपने ऐसा क्यों नहीं कहा कि अशुभक्रिया अशुद्ध है और शुभक्रिया शुद्ध है ? । ___ उत्तर में गुरुजी कहते हैं कि हे भाई ! जबतक क्रिया (करने) के परिणाम रहते हैं, तबतक उपयोग और योग (मन-वचन-काय) में चंचलता बनी रहती है। जबतक योग और उपयोग में स्थिरता नहीं आती है, तबतक शुद्ध आत्मा का अनुभव नहीं होता है। इसलिए शुभ और अशुभ दोनों ही क्रियायें मोक्षमार्ग को काटने लिए कैंची के समान हैं। जिसप्रकार कैंची कपड़े को काटती है; उसीप्रकार से शुभाशुभभाव मुक्तिपथ को काटते हैं। कवि कहते हैं कि मैं अधिक क्या कहूँ? ये शुभ और अशुभ दोनों ही भाव बंध के करने वाले हैं, दोनों में कोई भी भला नहीं है। मैंने इन्हें मुक्तिमार्ग में बाधक जानकर ही इनका निषेध किया है। करनी मात्र निषेध करने योग्य है। किसी भी प्रकार की करनी (कर्तृत्वबुद्धि) क्यों न हो, वह तो बंध की कारण होने से निषेध करने योग्य ही है। इसप्रकार इन कलशों में यह कह दिया गया है कि सभी प्रकार के शुभाशुभभाव मुक्तिमार्ग के विरोधी होने से हेय ही हैं। अब इसी बात को आगामी गाथाओं में सोदाहरण स्पष्ट करेंगे। •
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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