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________________ 359 गाथा १५६ घातक हैं, स्वयं बन्धस्वरूप हैं और शुद्ध परिणति से विपरीत स्वभाववाले हैं, अतः निषेध्य हैं।" ___ इसप्रकार हम देखते हैं कि इन तीनों कलशों में यह कहा है कि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्ररूप ज्ञान का परिणमन आत्मस्वभाव होने से मुक्ति का कारण है और शुभाशुभभावरूप कर्म परिणमन पुद्गलस्वभाव होने से मुक्ति का कारण नहीं है, मुक्ति का निरोधक है; अतः उन कर्मों का मुक्तिमार्ग में निषेध किया गया है। ___ अनेक आगम प्रमाणों और युक्तियों से यह बात भली-भांति स्पष्ट हो गई कि ये शुभाशुभ सभी पुण्य-पापरूप परिणाम बंध के ही कारण हैं; फिर भी तीव्र मिथ्यात्व के कारण अज्ञानिओं को यह बात जचती नहीं, रुचती नहीं और पचती नहीं। कविवर पण्डित बनारसीदासजी उक्त तीन कलशों का भावानुवाद नाटक समयसार में इसप्रकार प्रस्तुत करते हैं - ( सोरठा ) अंतर-दृष्टि-लखाउ, निज सरूपको आचरन । ए परमातम भाउ, सिव कारन येई सदा ॥ अपने अन्तर में दृष्टि को केन्द्रित करना, स्वयं को ही लखना (देखना) और अपने स्वरूप में ही आचरण करना, रमना ही परमात्म पद प्राप्त करने के भाब हैं और ये ही मुक्ति के कारण हैं। तात्पर्य यह है कि निश्चयसम्यग्दर्शनज्ञानचारित्र ही मुक्ति के कारण हैं। ( सोरठा ) करम सुभासुभ दोइ, पुद्गलपिंड विभाव मल । इनसौ मुकति न होई, नहिं केवल पद पाइए ॥ शुभ और अशुभ - दोनों प्रकार के ही कर्म पुद्गल के पिंड हैं, विभाव हैं, मैल हैं; इनसे मुक्ति नहीं होती और न इनसे केवलज्ञान की प्राप्ति ही होती है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १४०-१४१
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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