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________________ 357 गाथा १५६ इन कलशों का भाव स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "जानना, श्रद्धान करना एवं स्थिर होना - ये तीनों एक मात्र जीवद्रव्य स्वभावी या चैतन्यस्वभावी हैं। राग की क्रिया से भिन्न रहकर आत्मा का जो अन्तर्परिणमन हुआ, वह चैतन्यस्वभावी होने से ज्ञान का अर्थात् आत्मा का ही परिणमन है। आत्मद्रव्य के शुद्धस्वभाव के आश्रय से ही आत्मद्रव्य का शुद्ध होना - परिणमना होता है। इसमें किसी परद्रव्य की या राग के आश्रय की अपेक्षा नहीं है। देखो, इस कलश में कितना सार भरा है। ज्ञान, श्रद्धान व शान्तिरूप वीतराग परिणति - ये तीनों एक जीवद्रव्यस्वभावी हैं और यही मोक्ष का कारण है। राग की क्रिया अन्यद्रव्यस्वभावी होने से धर्म का कारण नहीं हो सकती। देखो, कर्म अर्थात् व्रत, तप, दया, दान, भक्ति, पूजा आदि सभी शुभभाव अन्यद्रव्यस्वभावी यानि पुद्गलद्रव्यस्वभावी हैं। राग आत्मा का स्वभाव नहीं है। यदि राग आत्मा का स्वभाव हो तो वह आत्मा से कभी पृथक् नहीं हो सकता था; किन्तु जब आत्मा अपने चैतन्यस्वभाव में स्थिर होता है, तब राग निकल जाता है और आत्मा केवल ज्ञानस्वरूप रह जाता है। देखो, आचार्यदेव ने खूब घोषणा कर-करके कहा है कि - व्रत, तप, आदि बाह्यक्रियारूप शुभकर्म मोक्ष का कारण नहीं है; तथापि यह बात लोगों को क्यों नहीं सुहाती? समझना तो बहुत दूर, सुनना भी नहीं चाहते।जिसका महान भाग्योदय होगा, उसे ही यह बात रुचेगी; सुनेगा भी वही और समझेगा भी वही। यह विचार करके ही संतोष धारण करना पड़ता है। समयसार कलश में भी इसी श्लोक की टीका करते हुये श्री राजमलजी ने स्वयं शंका-समाधान करते हुये लिखा है कि - यहाँ कोई जानेगा कि शुभ १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १३५ २. वही, पृष्ठ १३५ ३. वही, पृष्ठ १३६ ४. वही, पृष्ठ १३८
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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