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________________ समयसार अनुशीलन 356 है; उसीप्रकार वर्तमान पर्याय में भी वीतरागीभाव से परिणमित होना परमार्थ मोक्षमार्ग है। उनसे भिन्न व्रत, तप वगैरह शुभकर्मरूप या शुभभावरूप राग यथार्थ मोक्षमार्ग नहीं है। इस गाथा की टीका लिखने के उपरान्त आचार्य अमृतचन्द्रदेव इसी भाव के पोषक दो कलश तथा आगामी गाथाओं का सूचक एक कलश - इसप्रकार तीन कलश लिखते हैं, जो इसप्रकार हैं - __ ( अनुष्टप् ) वृतं ज्ञानस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं सदा । एकद्रव्यस्वभावत्वान्मोक्षहेतुस्तदेव तत् ॥१०६॥ वृत्तं कर्मस्वभावेन ज्ञानस्य भवनं न हि । द्रव्यांतरस्वभावत्वान्मोक्षहेतुर्न कर्म तत् ॥ १०७॥ मोक्षहेतुतिरोधानाट्बन्धत्वात्स्वयमेव च । मोक्षहेतुतिरोधाभिवत्वात्तन्निषिध्यते ॥१०८॥ (दोहा) ज्ञानभाव का परिणमन ज्ञानभावमय होय । एकद्रव्यस्वभाव यह हेतु मुक्ति का होय ॥१०६॥ कर्मभाव का परिणमन ज्ञानरूप न होय । द्रव्यान्तरस्वभाव यह इससे मुकति न होय ॥ १०७॥ बंधस्वरूपी कर्म यह शिवमग रोकनहार । इसीलिए अध्यात्म में है निषिद्ध शतवार ॥ १०८॥ ज्ञान एकद्रव्यस्वभावी (जीवस्वभावी) होने से ज्ञान के स्वभाव से ज्ञान का भवन (परिणमन) बनता है; इसलिए ज्ञान ही मोक्ष का कारण है। कर्म अन्यद्रव्यस्वभावी (पुद्गलस्वभावी) होने से कर्म के स्वभाव से ज्ञान का भवन (परिणमन) नहीं बनता है; इसलिए कर्म मोक्ष का कारण नहीं है। कर्म मोक्ष के कारणों का तिरोधान करने वाला है और वह स्वयं ही बंधस्वरूप है तथा मोक्ष के कारणों का तिरोधान करने के स्वभाव वाला होने से उसका निषेध किया गया है। १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ५, पृष्ठ १२५
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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