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________________ 309. गाथा १४५ - • "कोई कर्म तो अरहन्तादि में भक्ति-अनुराग, जीवों के प्रति अनुकम्पा के परिणाम और मन्द कषाय से चित्त की उज्ज्वलता इत्यादि शुभपरिणामों के निमित्त से होते हैं और कोई कर्म तीव्र क्रोधादिक अशुभ लेश्या, निर्दयता, विषयासक्ति और देव, गुरु आदि पूज्य पुरुषों के प्रति विनयभाव से नहीं प्रवर्तना इत्यादि अशुभ परिणामों के निमित्त से होते हैं; इसप्रकार हेतु भेद होने से कर्म के शुभ और अशुभ दो भेद हो जाते हैं। सातावेदनीय, शुभआयु, शुभनाम और शुभगोत्र - इन कर्मों के परिणामों (प्रकृति इत्यादि) में तथा चार घातीकर्म, असातावेदनीय, अशुभआयु, अशुभनाम और अशुभगोत्र - इन कर्मों के परिणामों (प्रकृति इत्यादि) में भेद है; इसप्रकार स्वभावभेद होने से कर्मों के शुभ और अशुभ दो भेद हैं। . किसी कर्म के फल का अनुभव सुखरूप और किसी का दुःखरूप है; इसप्रकार अनुभव का भेद होने से कर्म के शुभ और अशुभ दो भेद हैं। कोई कर्म मोक्षमार्ग के आश्रित है और कोई कर्म बन्धमार्ग के आश्रित है; इसप्रकार आश्रय का भेद होने से कर्म के शुभ और अशुभ दो भेद हैं। इसप्रकार हेतु, स्वभाव, अनुभव और आश्रय - ऐसे चार प्रकार से कर्म में भेद होने से कोई कर्म शुभ और कोई अशुभ है - ऐसा कुछ लोगों का पक्ष है। . अब इस भेदपक्ष का निषेध किया जाता है - जीव के शुभ और अशुभ परिणाम दोनों अज्ञानमय हैं, इसलिये कर्म का हेतु एक अज्ञान ही है; अतः कर्म एक ही है। शुभ और अशुभ पुद्गलपरिणाम दोनों पुद्गलमय ही हैं; इसलिये कर्म का स्वभाव एक पुद्गलपरिणामरूप ही है; अतः कर्म एक ही है। सुख-दुःखरूप दोनों अनुभव पुद्गलमय ही हैं, इसलिये कर्म का अनुभव एक पुद्गलमय ही है; अतः कर्म एक ही है। मोक्षमार्ग और बन्धमार्ग में, मोक्षमार्ग तो केवल जीव के परिणाममय ही है और बन्धमार्ग केवल पुद्गल के परिणाममय ही है, इसलिये कर्म का आश्रय मात्र बन्धमार्ग ही है (अर्थात् - कर्म एक बन्धमार्ग के आश्रय से ही होता है - मोक्षमार्ग में नहीं होता); अतः कर्म एक ही है।
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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