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________________ 293 + गाथा १४४ ( छप्पय ) जीव मिथ्यात न करै, भाव नहि धेरै भरममल । ग्यान ग्यानरस रमै, होई करमादिक पुदगल ॥ असंख्यात परदेस सकति, जगमगै प्रगट अति । चिदविलास गंभीर धीर, थिर रहे विमलमति ॥ जब लगि प्रबोध घटमहि उदित, तब लगि अनय न पेखिये । जिमि धरमराज बरतंत पुर, जहं तहं नीति परेखिये || जीव मिथ्यात्वरूप द्रव्यकर्मों को नहीं करता और मिथ्यात्व - राग-द्वेष आदि भ्रमभावों को भी धारण नहीं करता । ज्ञान ज्ञानरस में ही रमता है और ज्ञानावरणादि कर्म पुद्गलरूप ही रहते हैं । तथा धीर-गंभीर स्थिर चैतन्य में विलास करनेवाली निर्मल ज्ञानज्योति पूर्ण शक्ति से आत्मा के असंख्य प्रदेशों में प्रगट रूप से प्रकाशित होती है, अत्यन्त जगमगाती है। जिसप्रकार जहाँ-जहाँ धर्म का सामाज्य रहता है, वहाँ-वहाँ नीति - न्याय भी दिखाई देता है : उसीप्रकार जबतक हृदय में सम्यग्ज्ञानज्योति उदित है. तबतक अनय (अन्याय - मिथ्यात्व) देखने में नहीं आता । इस कलश के भाव को स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - - 44 'भगवान आत्मा अनन्त चित्शक्तियों के समूह का भण्डार, ज्ञान का गोला, अचल और नित्य चैतन्यधातुमय सदा प्रगट ही है । यद्यपि पर्याय की अपेक्षा इसे अव्यक्त कहा है, परन्तु स्वभाव के सन्मुख जाकर देखने पर तो यह सदा व्यक्त ही है, प्रगट ही है। भगवान आत्मा के ज्ञानानन्दस्वभाव की गंभीरता की क्या बात कहें ? वह अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्त आनंद, अनन्तशान्ति, अनन्तस्वच्छता, अनन्तवीर्य, अनन्तप्रभुता आदि अनन्त चित्शक्तियों के समूह से भरा अत्यन्त गंभीर है। भगवान आत्मा संख्या से तो अनन्त शक्तियों का भंडार है ही, उसकी एक-एक शक्ति का स्वभाव भी अनन्त है । १. प्रवचनरत्नाकर, भाग ४, पृष्ठ ३९८ २. वही, पृष्ठ ३९९
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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