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________________ समयसार अनुशीलन रागादिभावों में अपनापन नहीं रहता, स्वामित्व नहीं रहता; कर्तृत्व और भोक्तृत्व भी नहीं रहता; सहज ज्ञाता - दृष्टाभाव प्रगट हो जाता है। यह कर्त्ताकर्म- अधिकार का अन्तिम कलश है। अतः इसमें उस ज्ञानज्योति को पुनः स्मरण किया गया है, जिसका स्मरण प्रत्येक अधिकार के आरम्भ में किया जाता रहा है। यह अधिकार के अंत का मंगलाचरण है। मंगलाचरण के बारे में कहा गया है कि 'आदौ मध्येऽवसाने च मंगलं भासितं बुधैः ' - विद्वान लोगों ने कहा है कि मंगलाचरण कार्य या ग्रन्थ की आदि, मध्य और अन्त में किया जाना अभीष्ट है।' इसी कथन के अनुसार यह एक प्रकार से कर्त्ताकर्म अधिकार के समापन का मंगलाचरण है। 292 - :: इस कलश में अचल, व्यक्त और चित्शक्तियों के भार अत्यन्त गंभीर ज्ञानज्योति के स्मरण के साथ-साथ यह भी स्पष्ट कर दिया है कि इस ज्ञानज्योति के प्रकाश में अज्ञानजन्य कर्त्ताकर्म की प्रवृत्ति का अभाव हो गया है, इसकारण अभी तक जो आत्मा रागादि भावों का कर्त्ता बनता था, अब वह कर्त्ता नहीं रहा और अब उसके तत्संबंधी कर्म का बंध भी नहीं होता; अतः कर्म कर्म नहीं रहा, ज्ञान ज्ञानरूप हो गया और पुद्गल कर्म पुद्गल रूप ही रहा। इसप्रकार अज्ञान के नाश होते ही अज्ञानजन्य कर्त्ताकर्म की प्रवृत्ति का भी अभाव हो गया। कर्त्ताकर्म अधिकार के आरंभ में ही कहा था कि जबतक अज्ञानजन्य कर्त्ताकर्म की प्रवृत्ति है, तबतक ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्मों का बंध होता है और जब यह अज्ञानजन्य कर्त्ताकर्म की प्रवृत्ति का अभाव हो जाता है तो तत्संबंधी बंध का अभाव भी नियम से हो जाता है। इसी बात को अनेक युक्तियों, आगमप्रमाणों एवं अनुभव के आधार पर सिद्ध कर अब अधिकार के अन्त में उसी का उपसंहार कर रहे हैं। १. धवला, १-१-१ इस छन्द का भाव पंडित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार व्यक्त करते हैं -
SR No.009472
Book TitleSamaysara Anushilan Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year1996
Total Pages214
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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