SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार अनुशीलन श्रुतकेवली' शब्द की व्युत्पत्ति आचार्य जयसेन इसप्रकार करते हैं " 24 44 श्रुते परमागमे केवलिभिः सर्वज्ञैर्भणितं श्रुतकेवलिभणितं अथवा श्रुतकेवलिभणितं गणधरदेवकथितमिति । " श्रुते माने परमागम में जो केवलियों - सर्वज्ञों ने कहा है, उसे ही श्रुतके वलिभणित कहते हैं । इस व्युत्पत्ति के अनुसार तो 'सुदकेवली भणिदं ' पद का अर्थ 'सर्वज्ञदेव द्वारा परमागम में कहा गया ' यह ही होता है । दूसरे सभी गणधर द्वादशांग के पाठी होते हैं, अतः श्रुतकेवली होते हैं । वस्तुतः गणधरदेव ही तो द्वादशांग रूप सर्वश्रुत की रचना करते हैं । इसकारण दूसरे अर्थ में आचार्य जयसेन द्वारा 'गणधरदेव द्वारा कथित' अर्थ लिया गया है । तात्पर्य यह है कि यह परमागम शास्त्र सर्वज्ञों और गणधरों की वाणी के अनुसार ही लिखा गया है। आचार्य अमृतचन्द्र इसे और भी अधिक विस्तार देते हैं। वे कहते हैं "सर्वपदार्थों को साक्षात् जाननेवाले केवलियों द्वारा प्रणीत, अनादिनिधन श्रुत द्वारा प्रकाशित, स्वयं अनुभव करनेवाले श्रुतकेवलियों द्वारा कथित, सर्वपदार्थों और शुद्धात्मा का प्रकाशक, अरहंत भगवान के प्रवचनों का अवयव यह समयसार नामक ग्रन्थ मेरे द्वारा आरम्भ किया जाता है ।" - श्रुतकेवली शब्द में जयसेन ने अकेले गणधरदेव ही लिए हैं, जबकि अमृतचन्द्र ने सभी श्रुतकेवली ले लिए हैं; अतः उसमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु तक की सम्पूर्ण परम्परा आ जाती है । उक्त सम्पूर्ण कथन ग्रन्थ की प्रामाणिकता को स्पष्ट करने के लिए ही किया गया है। आचार्यदेव कहते हैं कि मैं अपनी ओर से कुछ भी
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy