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________________ 23 गाथा १ "निश्चयनय से अपने में ही आराध्य-आराधक भाव होने से निर्विकल्पसमाधि है लक्षण जिसका - ऐसे भावनमस्कार द्वारा एवं व्यवहार से वचनात्मक द्रव्यनमस्कार के द्वारा वंदना करके ... ।' आचार्य कुन्दकुन्द, अमृतचन्द्र एवं जंयसेन सभी छठवें-सातवें गुणस्थान की भूमिका में झूलने वाले भावलिंगी सन्त थे। छठवें गुणस्थान का उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्त ही होता है। इसकारण वे हर अन्तर्मुहूर्त में सातवें गुणस्थान में जाते ही थे। यही उनके द्वारा किया गया भावनमस्कार है, भावस्तुति है और इस गाथा में जो शब्दों में नमस्कार किया गया है; वही द्रव्यनमस्कार है, द्रव्यस्तुति है। उक्त भावस्तुति और द्रव्यस्तुति के माध्यम से ही आचार्यदेव अपने और पाठकों के आत्मा में सिद्धों की स्थापना करना चाहते हैं । वे इस ग्रन्थाधिराज का प्रणयन सिद्धों की साक्षीपूर्वक करना चाहते हैं और पाठकों से भी अपेक्षा रखते हैं कि वे भी अपने हृदय में सिद्धों की स्थापना करके इस ग्रंथाधिराज का स्वाध्याय करें। जगत में भी जब कोई महान काम किया जाता है तो लोकमान्य पुरुषों को साक्षी बनाकर ही किया जाता है। शादी जैसे कार्य को भी लोग देव-शास्त्र-गुरु की परोक्ष साक्षी और पंचों की प्रत्यक्ष साक्षी पूर्वक करते हैं। यही कारण है कि आत्महितकारी इस महान ग्रन्थाधिराज के प्रणयन में आचार्यदेव सर्वसिद्धों को साक्षी बनाना चाहते हैं। ___ 'सिद्ध समान सदा पद मेरो' की सूक्ति के अनुसार सभी आत्मा सिद्ध समान तो हैं ही और प्रत्येक आत्मार्थी का अन्तिम साध्य भी सिद्ध दशा ही है। यही कारण है कि इस परम मंगलमय प्रसंग पर वे अपने और पाठकों के आत्मा में सिद्धत्व की स्थापना करके इस महान कार्य का आरम्भ करते हैं।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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