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________________ रहस्य : रहस्यपूर्णचिट्ठी का इसीप्रकार आत्मकल्याण के कार्य के लिए स्वाध्याय और सत्समागम भी यथासंभव विवेक पूर्वक किया जाना चाहिए। ५४ शास्त्रों के संबंध में एक समस्या तो है। प्रथमानुयोग के जितने शास्त्र हैं, वे सभी लगभग इस शैली में आरंभ होते हैं कि एक बार भगवान महावीर का समवशरण विपुलाचल पर्वत पर आया। राजा श्रेणिक उनके दर्शनार्थ पधारे। उन्होंने प्रश्न किया और उसके उत्तर में भगवान महावीर ने या गौतम गणधर ने यह कहानी सुनाई। इससे लगता है कि यह सब भगवान महावीर की वाणी में आई बात है। पर द्रव्यानुयोग, करणानुयोग और चरणानुयोग के शास्त्र इसप्रकार आरंभ नहीं होते। इसकारण हमें ऐसा प्रतीत नहीं होता कि यह सभी तत्त्वज्ञान महावीर की दिव्यध्वनि में समागत वस्तुस्वरूप है। में हिन्दी भाषा में कुछ कथा साहित्य प्रथमानुयोग की उक्त मध्ययुग शैली में तैयार हुआ; जिसकी कथावस्तु लगभग ऐसी है कि जिसमें कहा जाता है कि एक लड़की ने मुनिराज की उपेक्षा की; इसप्रकार वह नरक में गई । फिर दो-चार बार ऐसा होता है कि वह नरक से निकल कर कुरूप, रोगी और नीच कुल में पैदा हुई, फिर मरकर नरक में गई। फिर वह किसी भव में प्रायश्चित्त करती है, मुनिराजों का सम्मान करती है, फलस्वरूप स्वर्ग में जाती है, फिर राजा के यहाँ सुन्दर कन्या होती है। दो-चार बार ऐसा होता है और फिर पुरुष पर्याय पाकर वह मोक्ष चली जाती है। यह सबकुछ महिलाओं के साथ ही हुआ, पुरुषों के साथ नहीं; क्योंकि धर्मभीरु महिलायें ऐसी बातों पर जल्दी विश्वास करती हैं, डरती भी बहुत हैं और आहारादि की व्यवस्था भी मुख्यरूप से वे ही करती हैं। शिथिलाचार के विरुद्ध उठ रही आवाजों को दबाने की भावना से यह सब लिखा गया लगता है। यह सब साहित्य भगवान महावीर की वाणी बन बैठा और समयसारादि शास्त्र उपेक्षित हो गये; क्योंकि उनके आरंभ में ऐसा कुछ नहीं लिखा गया था। चौथा प्रवचन जो भी हुआ हो, पर यदि हमें आत्मकल्याण करना है तो उपलब्ध जैन साहित्य में से वीतरागता के पोषक तत्त्वनिरूपक शास्त्रों को चुनकर उनका स्वाध्याय करके आत्मकल्याण का मार्ग प्रशस्त करना होगा। ५५ हम इस बात को गहराई से समझे कि जैनदर्शन वीतरागी दर्शन है, वह वीतरागता को ही धर्म घोषित करता है। राग-द्वेष और अज्ञान तो स्पष्टरूप से अधर्म हैं। यह हम सभी लोग जानते हैं; क्योंकि हमारी परम्परा में यह सब चला आ रहा है। हम पत्र लिखते हैं, शादी का कार्ड छपाते हैं तो सबसे ऊपर श्री वीतरागाय नमः लिखते हैं, घर के दरवाजे पर श्री वीतरागाय नमः लिखते हैं, रोकड़ बही खाता-बही में भी सबसे ऊपर श्री वीतरागाय नमः लिखते हैं। अत: वीतरागता ही धर्म है, राग-द्वेष-मोह धर्म नहीं ह्न यह तो हम सब भलीभाँति जानते ही हैं। अतः देव-शास्त्र-गुरु के संदर्भ में भी इसी आधार पर सही-गलत का निर्णय करना चाहिए। इसीलिए तो मैंने लिखा है वीतरागता की पोषक ही जिनवाणी कहलाती है। यह है मुक्ति का मार्ग निरन्तर हमको जो दिखलाती है । उसी वाणी के अंतर्तम को जिन गुरुओं ने पहिचाना है। उन गुरुवर्यो के चरणों में मस्तक बस हमें झुकाना है॥ जो वीतरागता का पोषण करें, वे शास्त्र ही सच्चे शास्त्र हैं। शास्त्र के समान ही गुरु भी वही सही है, जो वीतरागता में धर्म बतायें। रागद्वेष में धर्म बतानेवाले गुरु सच्चे नहीं हो सकते। हमें शास्त्रों को पढ़कर, गुरुओं के माध्यम से क्या समझना चाहिए ह्र इस संदर्भ में मार्गदर्शन करते हुए पण्डित टोडरमलजी एक पाठ्यक्रम प्रस्तुत करते हैं, जो इसप्रकार है ह्र "वहाँ अपने प्रयोजनभूत मोक्षमार्ग के, देव-गुरु-धर्मादिक के, जीवादितत्त्वों के तथा निज-पर के और अपने को अहितकारी-हितकारी भावों के ह्न इत्यादि के उपदेश से सावधान होकर ऐसा विचार किया १. देव-शास्त्र-गुरु पूजन जयमाला
SR No.009470
Book TitleRahasya Rahasyapurna Chitthi ka
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year
Total Pages60
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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