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________________ १६४ प्रवचनसार अनुशीलन ज्ञातास्वभाव के शत्रु या मित्र कोई नहीं हो सकते । पर्याय में उत्पन्न विकार शत्रु है और विकार रहित आत्मस्वभाव हमारा मित्र है।' वास्तव में आत्मा स्वयं के ज्ञान अलावा अन्य कुछ भी नहीं कर सकता ह ऐसे भानपूर्वक अंतर में रमणता बढ़े वह वास्तव में चारित्र है, चारित्र ही धर्म है, धर्म ही समता है और समता ही निर्दोष वीतरागी परिणाम है। धर्मी जीव को श्रद्धा अपेक्षा से समता है; किन्तु यहाँ मुनिराज को विशेष लीनतापूर्वक वीतरागी दशा प्रगट है; अत: उन्हें ही सच्ची समता होती है । मुनिराज का लक्षण समता ही है।" मुनिराजों के समताभाव का निरूपण करते हुए पंडित दौलतरामजी छहढाला की छठवीं ढाल में जो पंक्तियाँ लिखते हैं; वे ऐसी लगती हैं कि मानो उन्होंने इस गाथा का पद्यानुवाद ही कर दिया है। वे पंक्तियाँ इसप्रकार हैं ह्न अरि-मित्र, महल-मसान, कंचन-काँच, निन्दन-थुतिकरन । अर्धावतारन-असिप्रहारन, में सदा समता धरन ।।६।। इसप्रकार हम देखते हैं कि इस गाथा में यही कहा गया है कि सम्यग्दर्शन व सम्यग्ज्ञानसहित चारित्र धारण करके मुनिराज शत्रु और बन्धु वर्ग में, लौकिक सुख-दुःख में, प्रशंसा-निन्दा में, सोना और मिट्टी में तथा जीवन और मरण में समान भाव रखते हैं, समता भाव रखते हैं। न तो शत्रुओं से द्वेष करते हैं और न भाई-बहिनों से राग ही रखते हैं; न लौकिक अनुकूलता में अपने को सुखी अनुभव करते हैं और न प्रतिकूलता में दुख ही मानते हैं; न प्रशंसा सुनकर प्रसन्न होते हैं और न निन्दा सुनकर खेद-खिन्न होते हैं। इसीप्रकार सोना और मिट्टी में भी उन्हें कोई अन्तर भासित नहीं होता । अधिक क्या कहें, उन्हें तो जीवन-मरण में भी सर्वप्रकार समभाव रहता है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ-२५२ २. वही, पृष्ठ-२५६ प्रवचनसार गाथा २४२ विगत गाथा में सच्चे संतों का स्वरूप स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह बताते हैं कि एकाग्रता लक्षणवाला श्रामण्यरूप मोक्षमार्ग आत्मज्ञान सहित आगमज्ञान, तत्त्वश्रद्धान और संयतपने की एकरूपता में ही है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र दसणणाणचरित्तेसु तीसु जुगवं समुट्ठिदो जो दु। एयग्गगदो त्ति मदो सामण्णं तस्स पडिपुण्णं ।।२४२।। (हरिगीत ) ज्ञान-दर्शन-चरण में युगपत सदा आरूढ़ हो। एकाग्रता को प्राप्त यति श्रामण्य से परिपूर्ण हैं ।।२४२।। दर्शन, ज्ञान और चारित्र ह्र इन तीनों में जो एक साथ आरूढ है, एकाग्रता को प्राप्त है; उसके परिपूर्ण श्रामण्य है ह्र ऐसा शास्त्रों में कहा है। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न ___ "ज्ञेय और ज्ञानतत्त्व की यथार्थ प्रतीतिरूप सम्यग्दर्शन पर्याय, अनुभूतिरूप सम्यग्ज्ञान पर्याय और ज्ञेय और ज्ञाता की क्रियान्तर से निवृत्ति से रचित परिणतिरूप चारित्र पर्याय ह्र इन तीनों पर्यायों और आत्मा की भाव्य-भावकता द्वारा उत्पन्न अतिगाढ इतरेतर मिलन के बल से इन तीनों पर्यायरूप युगपत् अंग-अंगीभाव से परिणत आत्मा के आत्मनिष्ठता होने पर जो संयतत्व होता है; वह संयतत्व ही एकाग्रता लक्षण वाला श्रामण्य जिसका दूसरा नाम है ह्र ऐसा मोक्षमार्ग है ह्र ऐसा जानना चाहिए। उस श्रामण्यरूप मोक्षमार्ग के भेदात्मक होने से 'सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र मोक्षमार्ग हैं' ह्र इसप्रकार पर्याय प्रधान व्यवहारनय से उसका प्रज्ञापन है और उस मोक्षमार्ग के अभेदात्मक होने से एकाग्रता मोक्षमार्ग हैं' ह्न इसप्रकार द्रव्यप्रधान निश्चयनय से उसका प्रज्ञापन है तथा समस्त
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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