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________________ प्रवचनसार गाथा २४१ विगत गाथा में आत्मज्ञान सहित आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयम की एकतारूप मुक्तिमार्ग का स्वरूप समझाया है; अब इस गाथा में यह बता रहे हैं कि उक्त मार्ग में चलनेवाले संत कैसे होते हैं। गाथा मूलतः इसप्रकार है ह्र समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो । समलोट्ठकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो ।। २४१ ।। ( हरिगीत ) कांच - कंचन, बन्धु-अरि, सुख-दुःख, प्रशंसा-निन्द में | शुद्धोपयोगी श्रमण का समभाव जीवन-मरण में ।। २४१ || जिन्हें शत्रु और बन्धुवर्ग, सुख और दुःख, प्रशंसा और निन्दा, सोना और मिट्टी का ढेला तथा जीवन और मरण समान हैं, इन सभी में जिनका समताभाव है; वे श्रमण हैं। आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं "संयम, सम्यग्दर्शनज्ञानपूर्वक चारित्र है; चारित्र धर्म है; धर्म साम्य है और मोहक्षोभ रहित आत्मपरिणाम ही साम्य है; इसलिए साम्य संयत का लक्षण है। शत्रु व बन्धुवर्ग में, सुख व दुख में, प्रशंसा व निन्दा में, मिट्टी के ढेले व सोने में और जीवन व मरण के संदर्भ में शत्रु पर है व बन्धुवर्ग स्व हैं, सुख आह्लाद है व दुख परिताप है, प्रशंसा उत्कर्षण (उन्नति) है व निन्दा अपकर्षण (अवनति) है, मिट्टी का ढेला मेरे लिए अकिंचित्कर है व सोना उपकारक है, जीवन स्थायित्व है व मरण विनाशक है इसप्रकार के मोह के अभाव के कारण जिसे सर्वत्र ही राग-द्वेष का द्वैत प्रगट नहीं होता और जो सतत् विशुद्ध ज्ञानदर्शन-स्वभावी आत्मा का अनुभव करता है ह्र इसप्रकार शत्रु-बन्धु, सुख-दुःख, प्रशंसा - निन्दा, गाथा २४१ १६३ मिट्टी - सोना और जीवन-मरण को निर्विशेषतया ही ज्ञेयरूप जानकर ज्ञानात्मक आत्मा में जिसकी परिणति अचलित हुई है; उस पुरुष को सर्वतः साम्य है। यह संयत का लक्षण है। ऐसे संयत पुरुष को आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्व का युगपतपना तथा आत्मज्ञान का युगपतपना सिद्ध है।" इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुसरण करते हैं। पण्डित देवीदासजी १ इकतीसा सवैया और कविवर वृन्दावनदासजी १ छप्पय में इस गाथा के भाव को प्रस्तुत करते हैं। दोनों का भाव लगभग समान ही है। कविवर वृन्दावनदासजी का छप्पय इसप्रकार है ह्र (छप्पय ) जो जाने समतुल्य, शत्रु अरु बंधुवर्ग निजु । सुख-दुख को सम जानि, गहै समता सुभाव हिजु ।। श्रुति निंदा पुनि लोह कनक, दोनों सम जानै । जीवन मरन समान मानि, आकुलदल भानै । सोई मुनि वृन्द प्रधान है, समतालच्छन को धरै । निज साम्यभाव में होय थिर, शुद्ध सिद्ध शिव तिय वरै ।। जो शत्रु और अपने बन्धुवर्ग को समान जानता है, सुख-दुख को समान जानता है, स्तुति-निन्दा और लोहे व सोने को समान जानता है तथा जीवन-मरण को समान मानता है; वह आकुलता की सेना को जीतकर, समता लक्षण को धारण करता है। मुनियों में प्रधान वह मुनिराज निजसाम्यभाव में स्थिर होकर शुद्ध, सिद्ध मुक्तिरूपी स्त्री का वरण करते हैं । स्वामीजी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "स्वयं का आत्मा ज्ञानस्वभावी है। दया दानादि विकार मेरा स्वरूप नहीं है। मैं विशुद्ध आत्मतत्त्व हूँ । शत्रु अथवा मित्र तो ज्ञाता के ज्ञेय हैं।
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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