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________________ १५१ प्रवचनसार गाथा २३८ 'सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र ह्र इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है' ह्र विगत गाथाओं में यह स्पष्ट करने के उपरान्त अब इस गाथा में यह कहते हैं कि उक्त तीनों के युगपत् होने पर भी मुक्ति का साधकतम कारण तो आत्मज्ञान ही है। गाथा मूलत: इसप्रकार है ह्र जं अण्णाणी कम्मं खवेदि भवसयसहस्सकोडीहिं। तं णाणी तिहिं गुत्तो खवेदि उस्सासमेत्तेण ।।२३८।। (हरिगीत) विज्ञ तीनों गुप्ति से क्षय करें श्वासोच्छ्वास में। अज्ञ उतने कर्म नाशे जनम लाख करोड़ में ||२३८।। जितने कर्म अज्ञानी सौ हजार करोड़ भवों में क्षय करता है; उतने कर्म ज्ञानी तीन योग (मन-वचन-काय) से गुप्त होने से, त्रिगुप्ति का धारी होने से उच्छ्वास मात्र में क्षय कर देता है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र इस गाथा के भाव को तत्त्वप्रदीपिका टीका में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “अज्ञानी के जितने और जो कर्म क्रमपरिपाटी से और अनेकप्रकार के बालतपादिरूप उद्यम से पकते हुए, उपात्त राग-द्वेष से सुख-दुखादि विकारभावरूप परिणमित होने से आगामी कर्मों को बांधते हुए एक लाख-करोड़ भवों में महाकष्ट से कटते हैं; ज्ञानी के उतने और वही कर्म आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयमभाव के युगपत्पने के अतिशय प्रसाद से प्राप्त हुई शुद्धज्ञानमय आत्मतत्त्व की अनुभूतिरूप ज्ञानीपन से और मन-वचन-कायरूप तीन गुप्तियों के सद्भाव से, राग-द्वेष के छोड़ने से समस्त सुख-दुःखादिरूप विकार अत्यन्त निरस्त होने से; आगामी कर्मबंध न करता हुआ उच्छ्वास मात्र में नष्ट कर देता है। इससे आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान और संयतत्त्व के युगपत् होने पर गाथा २३८ भी आत्मज्ञान को ही मोक्षमार्ग में साधकतम स्वीकार करना चाहिए।" उक्त गाथा के भाव को आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में आचार्य अमृतचन्द्र कृत तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। कविवर वृन्दावनदास भी इस गाथा और तत्त्वप्रदीपिका टीका के भाव को प्रवचनसार परमागम में ३ मनहरण छन्दों में विस्तार से स्पष्ट करते हुए सोदाहरण समझाते हैं; जो मूलतः पठनीय हैं। पंडित देवीदासजी एक छन्द में इस गाथा के भाव को संक्षेप में प्रस्तुत कर देते हैं; जो इसप्रकार है ह्र (कवित्त छन्द) जे अग्यान जीव यह जग में अद्भुत क्रियाकांड करि लीन । सौ हजार कोटि भव तिन्हिके तितने कर्म होत हैं हीन ।। ग्यानी आप विर्षे सु होहि थिर क्रिया रोध जोगनि की तीन । जितनैं कर्म करतु सो बुधभवि पुनि उस्वास मांहिं इक छीन ।।५३।। इस जगत में अद्भुत क्रियाकाण्ड में लीन अज्ञानी जीव सौ हजार करोड़ अर्थात् एक लाख करोड़ भवों में जितने कर्मों से हीन होता है; उतने ही कर्मों को बुद्धिमान भव्य ज्ञानी जीव मन-वचन-कायरूप तीन योगों के निरोध पूर्वक अपने में स्थिर होकर एक उच्छ्वास मात्र में क्षीण कर देता है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "टीका में लाख कोटी भवों का अर्थ अनंत भव ही ग्रहण करना है।' आत्मा का यथार्थ ज्ञान किए बिना शास्त्र का ज्ञान करे, नव तत्त्वों की श्रद्धा करे अथवा पंच महाव्रत पाले, फिर भी कल्याण नहीं हो सकता। अज्ञानी जीव अज्ञान से तप, दया, दान, यात्रा करता है; किन्तु इन समस्त क्रियाकांड के कारण वह कर्मों को बढ़ा रहा है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ-२२६
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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