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________________ गाथा २३७ १४८ प्रवचनसार अनुशीलन संयतत्व में से दो या एक से मोक्ष नहीं होता, अपितु तीनों की एकता से ही होता है।" वैसे तो कविवर वृन्दावनदासजी इस प्रवचनसार परमागम में सर्वत्र ही सूक्तियों का समुचित प्रयोग करते रहे हैं; फिर भी इस प्रकरण में तो वे कुछ विशेष उत्साहित नजर आते हैं। वे यहाँ 'सूत न कपास करे कोरी सों लठालठी' 'जैसे दृगहीन नर जेवरी वस्तु है' और 'जैसे मन चंगा तो कठौती माँहि गंगा है' आदि लोकप्रिय सूक्तियों की झड़ी लगा देते हैं। इस गाथा के भाव को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं ह्न (मनहरण) तत्त्वनि में रुचि परतीति जो न आई तो धौं, कहा सिद्ध होत कीन्हें आगम पठापठी। तथा परतीति प्रीति तत्त्वहू में आई पै न, त्यागे राग दोष तौ तो होत है गठागठी।। तबै मोखसुख वृन्द पाय है कदापि नाहिं, तातें तीनों शुद्ध गहु छांड़ि के हठाहठी। जो तू इन तीन विन मोक्षसुख चाहै तौ तो, सूत न कपास करै कोरी सों लठालठी ।।३७।। जबतक तत्त्वश्रद्धान नहीं हुआ, तबतक आगम के पठन-पाठन से क्या होता है? यदि तत्त्वों की प्रतीति भी हुई, तत्त्वप्रेम भी हुआ; पर रागद्वेष नहीं छोड़े तो भी क्या होनेवाला है ? वृन्दावन कवि कहते हैं कि ज्ञान, श्रद्धान और संयम ह्न इन तीनों को धारण किये बिना मोक्षसुख की प्राप्ति नहीं होगी। इसलिए हठ छोड़कर तीनों को ग्रहण करो । यदि तू इन तीनों के बिना मोक्षसुख चाहता है तो तेरी अवस्था वैसी ही होगी कि जैसी उसकी हुई थी, जिसके पास न तो सूत (डोरा) ही था, न कपास (रुई) ही था; पर जो कपड़ा बनाने के लिए कोरी के साथ लठालठी (लाठियों से झगड़ा) कर रहा था। तात्पर्य यह है कि व्यर्थ के विवाद करने से कोई लाभ नहीं होगा; क्योंकि मुक्ति तो सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की एकता से ही प्राप्त होगी। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र आगम ज्ञान होने पर भी जो आत्मा की प्रतीति नहीं करता, उसे सम्यग्दर्शन प्रगट नहीं होता, धर्म नहीं होता। उस जीव को आत्मा का ज्ञान नहीं है, वह ज्ञानविमूढ़ अज्ञानी है। ज्ञेयों का ही प्रकाशक है; अत: उसे आगम क्या करेगा? अतः आत्मा की श्रद्धा से शून्य मात्र आगमज्ञान से सिद्धि नहीं होती। __सम्यक् श्रद्धा-ज्ञान के साथ वीतरागी चारित्र नहीं होने से धर्मी जीव को उस भव में मोक्ष की सिद्धि नहीं होती है। समकिती को अन्याय-अनीति-अभक्ष्य का त्याग होता है; किन्तु खाने-पीने या अन्य कार्य करने संबंधी रागभाव असंयमभाव, अत्यागभाव है। धर्मी जीव को भान है कि परपदार्थ भिन्न हैं, राग मेरा स्वरूप नहीं है; फिर भी वह असंयमी है; अतः संयमशून्य श्रद्धान या ज्ञान से मोक्ष नहीं होता; क्योंकि सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग है। यह जिसे नहीं है, उसे मोक्ष की प्राप्ति भी नहीं है। इसप्रकार आगमज्ञान, तत्त्वार्थश्रद्धान तथा संयतत्व इन तीनों की एकता जिसे नहीं है; उसे मोक्षमार्ग नहीं हो सकता।" इस गाथा का अभिप्राय मात्र यह है कि न तो आगम से पदार्थों के ज्ञान-श्रद्धान बिना मुक्ति की प्राप्ति होती है और न संयम के बिना आगमानुसार ज्ञान-श्रद्धान से ही मुक्ति की प्राप्ति होती है। मुक्ति की प्राप्ति तो मात्र उन्हीं को होती है; जिनके आगम के अनुसार आत्मानुभूतिपूर्वक हुए ज्ञान-श्रद्धान के साथ-साथ शुद्धोपयोगरूप संयम भी हो। तात्पर्य यह है कि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की एकता और परिपूर्णता ही मुक्ति प्राप्ति का एकमात्र उपाय है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ-२२० २. वही, पृष्ठ-२२२ ३. वही, पृष्ठ २२२
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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