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________________ ११८ प्रवचनसार अनुशीलन जो दोनों मग के विर्षे, होय विरोध प्रकास । तो मुनिमारग नहिं चलै, समुझो बुद्धिविलास ।।१५१।। ज्यों दोनों पग सों चलत, मारग कटत अमान । त्यों दोनों मग पग धरत, मिलत वृन्द शिवथान ।।१५२।। जहाँ संयम के अभंग रंग में अति कठोर आचरण होता है और जिसमें शुद्ध भावों की तरंगे उठती हैं; वह मार्ग ही उत्सर्गमार्ग है। यदि कोई मुनिराज देह की स्थिति को देखकर कोमल पथ पर चलते हैं, तदनुसार चर्चा का आचरण करते हैं तो वह मार्ग अपवादमार्ग है। ___ अनेकान्त के जानकार निज शुद्धात्मा की जिसप्रकार सिद्धि हो; उसीप्रकार का आचरण करें। __ जो मुनिराज कोमल आचरण का पालन करते हैं; वे भी अपनी शक्ति को देखकर यथासाध्य कठोर आचरण का पालन करते हैं। मुनिराज अभंग रूप से उसी पथ पर चलते रहते हैं कि जिसमें संयम का भंग न हो, मूलगुण भी पलते रहें और शुद्धात्मा में स्थिरता बढ़ती रहे। उत्सर्गमार्ग कठोर क्रियारूप है और अपवादमार्ग कोमल आचरण रूप है। मुनिराज उचित मर्यादा में दोनों में चलते हैं। निर्ग्रन्थ मुनिराज जब जैसी शरीर की स्थिति देखते हैं, तब मूल गुणों के पंथ पर चलते हुए उसीप्रकार की चर्या का आचरण करते हैं। ___यदि उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग ह इन दोनों मार्गों में विरोध होगा तो मुनिमार्ग नहीं चल पायेगा ह्र इस बात को बुद्धि में धारण कर लेना चाहिए। वृन्दावन कवि कहते हैं कि जिसप्रकार दोनों पैरों से चलते हुए अमाप मार्ग भी कट जाता है; उसीप्रकार उक्त दोनों मार्गों में चलते हुए मुनिराजों को मुक्तिधाम मिल जाता है। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "जो मुनिराज छोटी वय के हैं, वृद्ध हैं, थके हुए हैं अथवा रोगी हैं ह्र गाथा २३० ११९ ऐसे मुनियों को भी शुद्धात्मध्यान का ही ख्याल रहता है। शुद्धात्मतत्व का साधनभूत, जिससे संयम का छेद न हो ऐसा अपने योग्य अतिकर्कश आचरण ही वे आचरते हैं, यही उत्सर्गमार्ग है। शरीर में शक्ति न हो और हठ करके आकुलता उत्पन्न हो ह्र ऐसा मुनिराजों को नहीं होता । सहज वीतरागभाव से अपनी शक्ति छिपाये बिना जितना होता है, वे उतना करते हैं अर्थात् अपनी शक्ति के योग्य मृदु आचरण आचरते हैं, यही अपवाद मार्ग है। उग्र प्रयत्नपूर्वक वीतराग परिणामों में ठहरना ही उत्सर्ग मार्ग है। जो वीतराग परिणामों में नहीं ठहर सकता और जिसे शुभविकल्प उत्पन्न होते हों, उसे अपनी शक्ति का विचार करके परिणामों में खेद नहीं करके कोमल आचरण करना चाहिए ह्र यही अपवादमार्ग है। ____ मुनियों को उत्सर्ग आचरण ही मुख्य है । उत्सर्ग में स्थिर नहीं हो सके, तब मृदु आचरण आचरना ह्न यह अपवाद सापेक्ष उत्सर्ग है। हठपूर्वक शरीर का छेद न हो और संयम भी टिका रहे ह्र इस रीति का मृदु आचरण आचरते हुए कर्कश आचरण भी आचरना चाहिए। शक्ति हो तो शिथिल नहीं होना चाहिए। यह उत्सर्ग सापेक्ष अपवाद है।' स्वभाव में लीनता बढ़ती जाए और खेद भी न होह्र ऐसे दोनों प्रकार का विवेक रखकर मुनिराज वर्तन करते हैं।" उक्त गाथा में छठवें-सातवें गुणस्थान में झूलनेवाले मुनिराजों के संदर्भ में चार मार्गों की चर्चा की है ह्र १. उत्सर्गमार्ग, २. अपवादमार्ग, ३. अपवाद सापेक्ष उत्सर्गमार्ग और ४. उत्सर्ग सापेक्ष अपवादमार्ग । शुद्धोपयोगरूप सातवें और उसके आगे के गुणस्थानों में उत्सर्गमार्ग ही होता है, जो साक्षात् मुक्ति का कारण है। तीन कषाय चौकड़ी के अभावरूप शुद्ध परिणति के साथ रहनेवाले शुभोपयोगरूप छठवें १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, वही, पृष्ठ-१५० २. वही, पृष्ठ-१५२ ३. वही, पृष्ठ-१५३ ४. वही पृष्ठ-१५४ ५. वही, पृष्ठ-१५४
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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