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________________ ११६ प्रवचनसार अनुशीलन साधनभूत संयम का मूलभूत साधन होने से शरीर का छेद जिसप्रकार न हो, उसप्रकार अपने योग्य मृदु आचरण करते हुए भी शुद्धात्मतत्त्व के मूल साधक संयम का छेद जिसप्रकार न हो, उसप्रकार अपने योग्य अति कर्कश आचरण करना उत्सर्ग सापेक्ष अपवादमार्ग है। उक्तकथन में यह कहा गया है कि मुनिराजों को सर्वप्रकार से उत्सर्ग और अपवादमार्गकी मैत्रीपूर्वक अपने आचरण को व्यवस्थित करना चाहिए।" यद्यपि आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका का ही अनुसरण करते दिखाई देते हैं; तथापि वे उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग की परिभाषा सरल भाषा में इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र "अपने शुद्धात्मा से भिन्न बहिरंग-अंतरंगरूप सम्पूर्ण परिग्रह का त्याग उत्सर्गमार्ग है और उक्त उत्सर्ग मार्ग में असमर्थ मुनिराजों द्वारा शुद्धात्मा की भावना के सहकारी-कारणभूत कुछ प्रासुक आहार, ज्ञान के उपकरण आदि जिस मार्ग में ग्रहण किये जाते हैं, वह मार्ग अपवादमार्ग है।" पण्डित देवीदासजी उक्त गाथा के भाव को ४ पंक्तियों में इसप्रकार स्पष्ट करते हैंह्न (कवित्त छन्द) बालक वा सु वृद्ध मुनि अथवा पीडित महारोग करि कोई। कै पुनि भई तपस्या करिकै अति ही खेद-खिन्नता सोई।। माफिक सक्ति आचरै अपनी कोमल कठिन क्रिया जह दोई। मैत्री भाव दुहू सौं जामै संजिम मूल घात सु न होई ।।४३।। कोई मुनिराज यदि वे बालक हैं, वृद्ध हैं या किसी महारोग से पीड़ित हैं अथवा उग्र तपस्या करके अति खेद-खिन्न हो गये हैं; तो उनको चाहिए कि वे अपनी शक्ति के अनुसार कोमल और कठोर ह्र दोनों प्रकारों में सन्तुलन बनाकर योग्य आचरण करें; उत्सर्ग और अपवादमार्ग में मैत्रीभाव रखें, जिससे मूल संयम का घात नहीं होवे। उक्त संदर्भ में कविवर वृन्दावनदासजी अपनी बात को विस्तार से प्रस्तुत करते हैं। वे इस गाथा के भाव को स्पष्ट करने के लिए १ द्रुमिल गाथा २३० ११७ और ९ दोहे ह इसप्रकार १० छन्दों का प्रयोग करते हैं। अत्यन्त उपयोगी होने से वे सभी छन्द यहाँ दिये जा रहे हैं। (द्रुमिल सवैया) जिन बालपने मुनि भार धरे, अथवा जिनको तन वृद्ध अती। अथवा तप उग्र तें खेद जिन्हें, पुनि जो मुनि को कोउ रोग हती।। तब सो मुनि आतमशक्ति प्रमान, चरो चरिया निजजोग गती। गुनमूल नहीं जिमि घात लहैं, सो यही जतिमारग जानु जती ।।१४३।। जिन्होंने अपने बचपन में मुनिपद का भार धारण कर लिया है अथवा जिनका तन अति वृद्ध हो गया है अथवा उग्र तपों के तपने से जो खेदखिन्न हो गये हैं अथवा कोई भयानक रोग हो गया है; तो वे मुनिराज अपनी शक्तिप्रमाण चर्या का आचरण करें; पर इस बात का ध्यान रखें कि मूलगुणों का घात नहीं होना चाहिए । यतियों का यही मार्ग सही मार्ग है ह्र हे यतिवर्ग ! ऐसा जानो। (दोहा) अति कठोर आचरन जहँ, संजम रंग अभंग। सोई मग उतसर्ग जुत, शुद्धसुभाव-तरंग ।।१४४।। ऐसी चरिया आचरै, तेई मुनि पुनि मीत । कोमल मग में पग धरै, देखि देह की रीत ।।१४५।। निज शुद्धातमतत्त्व की जिहि विधि जानै सिद्ध । सोई चरिया आचरें, अनेकांत के वृद्ध ।।१४६।। अरु जे कोमल आचरन, आचरहीं अनगार। तेऊ पुनि निज शकति लखि, करहिं कठिन आचार ।।१४७।। संजम भंग न होय जिमि, रहै मूलगुन संग । शुद्धातम में थिति बढे, सोइ मग चलहि अभंग ।।१४८।। कठिन क्रिया उतसर्गमग, कोमलमग अपवाद । दोनों मग पग धारहीं समनि सहित मरजाद ।।१४९।। तब जैसी तन की दशा, देखहिं मनि निरग्रंथ । तब जैसी चरिया चरै, सहित मूलगुन पंथ ।।१५०।।
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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