SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार अनुशीलन उनका प्रमाद विगत गाथाओं में कही गई उपधि या उपकरणरूप ही होता है। जिसमें निर्दोष आहार-विहार के विकल्प, शास्त्रपठन, गुरुवाणी श्रवण और गुरुओं के प्रति विनय व्यवहार ही आता है। यहाँ एक प्रश्न हो सकता है कि फिर यहाँ प्रमत्तदशा में पंचेन्द्रियों के विषयों में रत आदि भेदों की चर्चा क्यों की गई है ? इसका सीधा-सच्चा उत्तर यह है कि प्रमत्तदशा अकेले छठवें गुणस्थान में ही नहीं होती, अपितु पहले से छठवें गुणस्थान तक होती है; आगे के सभी गुणस्थान अप्रमत्त दशा के हैं। शुद्धोपयोगरूप सभी गुणस्थान अप्रमत्त गुणस्थान हैं और शुभाशुभभाववाले सभी गुणस्थान प्रमत्त कहलाते हैं। उक्त पन्द्रह प्रकार का प्रमाद पहले से छठवें गुणस्थान तक अपनीअपनी भूमिकानुसार पाया जाता है। छठवें गुणस्थान में होनेवाली प्रमत्तदशा तो पीछी-कमण्डलु, शास्त्र तथा अध्ययन-अध्यापन और विनय व्यवहार तक ही सीमित है। प्रवचनसार गाथा २२७ विगत गाथा और उसकी टीका में यह समझाया गया है कि युक्ताहारविहारी साक्षात् अनाहारविहारी ही हैं और अब इस गाथा में उनके युक्ताहारविहारत्व को सिद्ध करते हैं। गाथा मूलत: इसप्रकार है तू जस्स अणेसणमप्पा तं पितवोतप्पडिच्छगा समणा। अण्णं भिक्खमणेसणमध ते समणा अणाहारा ।।२२७।। (हरिगीत) अरे भिक्षा मुनिवरों की एसणा से रहित हो। वे यतीगण ही कहे जाते हैं अनाहारी श्रमण ||२२७|| देहमात्र परिग्रह है जिसके, ऐसे श्रमण ने शरीर में भी ममत्व छोड़कर उसके श्रृंगारादि से रहित वर्तते हुए अपने आत्मा की शक्ति को छुपाये बिना शरीर को तप के साथ जोड़ दिया है। __आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र __ "श्रामण्यपर्याय के सहकारी कारण के रूप में केवल देहमात्र उपधि को श्रमण बलपूर्वक (हठ से) निषेध नहीं करता; इसलिए केवल देहवाला होने पर भी २२४वीं गाथा में बताये गये परमेश्वर के अभिप्राय को ग्रहण करके 'वस्तुत: यह शरीर मेरा नहीं है, इसलिए अनुग्रह योग्य भी नहीं है, किन्तु उपेक्षा योग्य ही है' ह इसप्रकार देह के समस्त संस्कार (शृंगार) से रहित होने से परिकर्मरहित है। इसकारण उनके देह के ममत्व पूर्वक अनुचित आहार के ग्रहण का अभाव होने से युक्ताहारीपना सिद्ध होता है। ___ दूसरे आत्मशक्ति को किंचित् मात्र भी छुपाये बिना समस्त आत्मशक्ति को प्रगट करके उन्होंने २२७वीं गाथा में कहे गये अनशनस्वभावी तप के साथ शरीर को सरिंभ से युक्त किया है; इसलिए आहार ग्रहण से होनेवाले आत्मानुभूति प्राप्ति के लिए सन्नद्ध पुरुष प्रथम तो श्रुतज्ञान के अवलम्बन से आत्मा का विकल्पात्मक सम्यक् निर्णय करता है। तत्पश्चात् आत्मा की प्रकट-प्रसिद्धि के लिए, पर-प्रसिद्धि की कारणभूत इन्द्रियों से मतिज्ञानतत्त्व को समेट कर आत्माभिमुख करता है तथा अनेक प्रकार के पक्षों का अवलम्बन करनेवाले विकल्पों से आकुलता उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान की बुद्धि को भी गौण कर उसे भी आत्माभिमुख करता हुआ विकल्पानुभवों को पार कर स्वानुभव दशा को प्राप्त हो जाता है। ह्न मैं कौन हूँ, पृष्ठ-१५
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy