SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 23
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवचनसार अनुशीलन आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इन गाथाओं का भ इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ३६ "सर्वसावद्ययोग प्रत्याख्यान स्वरूप एक महाव्रत की व्यक्तियाँ होने से हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह की विरतिरूप पंच महाव्रत और उसी की परिकरभूत पाँच समितियाँ, पाँच इन्द्रियरोध, केशलोंच, छह आवश्यक, अचेलकता, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़ेखड़े भोजन और दिन में एक बार भोजन ह्न इसप्रकार ये २८ निर्विकल्प सामायिक संयम के विकल्प (भेद) होने से श्रमणों के मूलगुण ही हैं। जब श्रमण निर्विकल्प सामायिक संयम में आरूढ़ता के कारण, जिसमें विकल्पों का अभ्यास नहीं है ह्र ऐसी दशा से च्युत होता है; तब 'केवल स्वर्णमात्र के अर्थी को कुंडल, कंकण, अंगूठी आदि को ग्रहण करना भी श्रेय है; ऐसा नहीं है कि सर्वथा स्वर्ण की प्राप्ति ही श्रेय हो' ह्र ऐसा विचार कर मूल गुणों में विकल्प (भेद) रूप से अपने को स्थापित करता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है।” आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में इन गाथाओं के भाव को न केवल तत्त्वप्रदीपिका के समान ही स्पष्ट करते हैं; अपितु उदाहरण वही स्वर्ण और कुण्डलादि का ही देते हैं। कविवर पण्डित वृन्दावनदासजी इन गाथाओं के भाव ३ मनहरण कवित्तों में प्रस्तुत करते हैं । इनमें पहले छन्द में २८ मूलगुणों के नाम मिलते हैं, दूसरे में छेदोपस्थापन चारित्र की बात करते हैं और तीसरे छन्द में सोने का उदाहरण देकर बात को स्पष्ट करते हैं। इसप्रकार उक्त तीन छन्दों में गाथाओं और उनकी टीका का भाव पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है। उक्त तीनों छन्द मूलत: पठनीय हैं। पण्डित देवीदासजी 'प्रवचनसारभाषाकवित्त' में इन गाथाओं के भाव को १ इकतीसा सवैया और १ दोहा ह्न इसप्रकार २ छन्दों में स्पष्ट करते हैं; जो इसप्रकार हैंह्न गाथा २०८ - २०९ ( सवैया इकतीसा ) पंच महाव्रत पालै समिति प्रकार पंच पंच इंद्री कौं निरोध लौंचि कच खौवै है । क्रिया षडावासक सु पालै पुनि छांव तजै दंतधावन नहीं सु तन धोवै है ।। ठाढ़े लघु भोजन करै तथा सु एक बार भूमिसन थोरौ पीछली सुरैंन सोवे है। मूल गुन कहे आठ बीस ये जिनागम में तिन्हि की प्रवर्ति सौं जतित्वपनौं होवे है ।। १४ ।। पंच महाव्रत और पंच समितियों का पालन करना और पंचेन्द्रियों का निरोध करना, केशलुंचन करना, छह आवश्यक क्रियाओं का पालन करना, वस्त्रों का त्याग करना, दातुन नहीं करना; स्नान नहीं करना, दिन में एक बार अल्पाहार लेना, खड़े-खड़े अपने हाथ में आहार लेना और पिछली रात में थोड़ा-बहुत भूमि पर शयन करना ह्न जिनागम में मुनिराजों के उक्त २८ मूलगुणों कहे गये हैं। इनके पालन से मुनिपना होता है। (दोहा) संजिम तैं प्रमाद जो लगै मूलगुन काज । तह छेदोपस्थापना करै जो सु मुनिराज ।। १५ ।। उक्त शुद्धोपयोगरूप अप्रमत्त संयत से च्युत होने पर जो उक्त मूल गुणों रूप शुभभावमय प्रमत्त अवस्था आती है, वह छेद है; उसमें उपस्थित होता हुआ और फिर पुरुषार्थपूर्वक अप्रमत्तदशा को प्राप्त होना छेदोपस्थापना संयम है । इन गाथाओं के भाव को आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्न " साधुपद प्रगट करने के पूर्व देव - शास्त्र - गुरु का यथार्थ स्वरूप जानना आवश्यक है; क्योंकि जब तक सच्चे देव - शास्त्र गुरु का स्वरूप
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy