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________________ प्रवचनसार अनुशीलन इन दोनों ही लिंगों का स्वरूप परमगुरु प्रतिपादन करते हैं । ' परमगुरु ने मुझे द्रव्यलिंग दिया है, यह तो उपचार से कहा जाता है। आत्मा के भान और ऐसे वीतरागी मुनिदशा बिना कभी भी सुखी नहीं हुआ जा सकता; क्योंकि सच्चे ज्ञान बिना मुनिदशा नहीं है और मुनिदशा की प्राप्ति बिना केवलज्ञान नहीं हो सकता । २" इसप्रकार इस गाथा में यही कहा गया है कि दीक्षार्थी अपने गुरु दीक्षाचार्य को अत्यन्त विनयपूर्वक नमस्कार करके उनसे मुनि जीवन में होनेवाले व्रत और क्रियाओं के बारे में सुनकर समझता है, फिर आत्मा के समीप उपस्थित होता हुआ अर्थात् आत्मध्यान करता हुआ, द्रव्यलिंग और भावलिंग ह्न दोनों को धारण करता हुआ अर्थात् सम्यग्दर्शन सहित नग्न दिगम्बर दशारूप बाह्याचरण को धारण करता हुआ साक्षात् श्रमण बन जाता है। ३४ १. दिव्यध्वनिसार भाग-५, पृष्ठ ४७ २. वही, पृष्ठ ४७ प्रत्येक द्रव्य अपनी पर्याय का कर्ता स्वयं है। परिणमन उसका धर्म है । अपने परिणमन में उसे परद्रव्य की रंचमात्र भी अपेक्षा नहीं है । नित्यता की भांति परिणमन भी उसका सहज स्वभाव है। अथवा पर्याय की कर्ता स्वयं पर्याय है। उसमें तुझे कुछ भी नहीं करना है। अर्थात् कुछ भी करने की चिन्ता नहीं करना है। अजीव - द्रव्य पर में तो करते ही नहीं, अपनी पर्यायों को करने की भी चिन्ता नहीं कुछ करते, तो क्या उनका परिणमन अवरुद्ध हो जाता है ? नहीं, तो फिर जीव भी क्यों परिणमन की चिन्ता में व्यर्थ ही आकुल-व्याकुल हो ? ह्न क्रमबद्धपर्याय, पृष्ठ- २८ प्रवचनसार गाथा २०८-२०९ जब कोई सम्यग्दृष्टि दीक्षार्थी मुनिदीक्षा लेता है, तब अपने गुरु से संबंधित बातों को समझकर, नग्न दिगम्बर दशा धारण कर, केशलुंचन आदि दीक्षा संबंधी सभी प्रक्रिया को पार कर, आत्मा में उपस्थित हो जाता है, आत्मलीन हो जाता है, सप्तम गुणस्थान की भूमिका को प्राप्त हो जाता है। यह बात विगत गाथा में समझाकर अब इन गाथाओं में यह कहते हैं कि आत्मध्यान से च्युत होकर जब यह शुभोपयोग में आता है, छटवें गुणस्थान में आता है तो अट्ठाईस मूलगुणों के शुभभाव में आता हुआ छेदोपस्थापक होता है। गाथायें मूलतः इसप्रकार हैं ह्र वदसमिदिंदियरोधो लोचावस्सयमचेलमण्हाणं । खिदिसयणमदंतवणं ठिदिभोयणमेगभत्तं च ॥ २०८ ॥ एदे खलु मूलगुणा समणाणं जिणवरेहिं पण्णत्ता । तेसु पमत्तो समणो छेदोवट्ठावगो होदि । । २०९ ।। ( हरिगीत ) व्रत समिति इन्द्रिय रोध लुंचन अचेलक अस्नान व्रत | ना दन्त-धोवन क्षितिशयन अर खड़े हो भोजन करें || २०८ || दिन में करें इकबार ही ये मूलगुण जिनवर कहें। इनमें रहे नित लीन जो छेदोपथापक श्रमण वह || २०९ || व्रत, समिति, इन्द्रियरोध, केशलोंच, आवश्यक, अचेलपना, अस्नान, भूमिशयन, अदन्तधोवन, खड़े-खड़े आहार और दिन में एक बार आहार ह्न ये श्रमणों के मूलगुण जिनवरों ने कहे हैं। इनमें प्रमत्त होता हुआ श्रमण छेदोपस्थापक होता है।
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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