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________________ प्रवचनसार गाथा २७३ विगत गाथाओं में संसारतत्त्व व मोक्षतत्त्व का निरूपण करने के उपरान्त अब इस गाथा में मोक्षतत्त्व के साधनतत्त्व का उद्घाटन करते हैं । गाथा मूलतः इसप्रकार है हृ सम्मं विदिदपदत्था चत्ता उवहिं बहिरत्थमज्झत्थं । विसयेसु णावसत्ता जे ते सुद्धा ति णिद्दिट्ठा ।। २७३।। ( हरिगीत ) यथार्थ जाने अर्थ को दो विध परिग्रह छोड़कर। ना विषय में आसक्त वे ही श्रमण शुद्ध कहे गये || २७३ ॥ पदार्थों को भली प्रकार जानते हुए जो श्रमण बहिरंग और अंतरंग परिग्रह को छोड़कर विषयों में आसक्त नहीं हैं; वे शुद्ध कहे गये हैं । आचार्य अमृतचन्द्र तत्त्वप्रदीपिका टीका में इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “जो अनेकान्त के द्वारा ज्ञात सम्पूर्ण ज्ञानतत्त्व और ज्ञेयतत्त्व के यथावस्थित स्वरूप में प्रवीण, समस्त बहिरंग और अंतरंग संगति के परित्याग से अंतरंग में प्रकाशमान, अनंत शक्ति सम्पन्न चैतन्य से भास्वर आत्मतत्त्व के स्वरूप को भिन्न करनेवाले और इसीकारण आत्मतत्त्व की वृत्ति स्वरूपगुप्त व सुसुप्त समान प्रशान्त रहने से विषयों में किंचित् भी आसक्ति को प्राप्त नहीं होनेवाले सकल महिमावान भगवान शुद्ध हैं, शुद्धोपयोगी हैं; उन्हें ही मोक्षतत्त्व का साधनतत्त्व जानना चाहिए; क्योंकि वे अनादि संसार से बंद, विकट, कर्मकपाट (कर्मरूपी किवाड़) को तोड़ने-खोलने के अति प्रयत्न से पराक्रम प्रगट कर रहे हैं।" इन गाथाओं के भाव को आचार्य जयसेन तात्पर्यवृत्ति टीका में तत्त्वप्रदीपिका टीका के समान ही स्पष्ट करते हैं। गाथा २७३ २४१ इस गाथा के भाव को पंडित देवीदासजी १ छन्द में एवं कविवर वृन्दावनदासजी २ छन्दों में प्रस्तुत करते हैं। कविवर वृन्दावनदासजी कृत छन्द इसप्रकार है ह्र ( मनहरण ) सम्यक प्रकार जो पदारथ को जानतु है, आपा पर भेद भिन्न अनेकान्त करिकै । इन्द्रिनि के विषै मैं न पागे औ परिग्रह, पिशाच दोनों भांति तिन्हें त्यागै धीर धरिकै ।। सहज स्वरूप में ही लीन सुखसैन मानो, करम कपाट को उधारै जोर भरिकै । ताही को जिनिंद मुक्त साधक बखानतु है, सोई शुद्ध साध ताहि, वंदो भर्म हरिकै ।। १०२ ।। अनेकान्तपूर्वक आपापर का भेद करके जो पदार्थों को भलीभाँति जानते हैं, पंचेन्द्रियों के विषयों में लीन नहीं रहते और परिग्रहरूपी पिशाच को अंतरंग और बहिरंग ह्र दोनों रूप से त्यागकर धैर्य धारण करके, जैसे सो गये हों ह्न इसप्रकार सहज स्वरूप में लीन होकर शक्तिपूर्वक कर्मरूपी किवाड़ों को उधारते हैं, तोड़ते हैं, खोलते हैं; उन श्रमणों को ही जिनेन्द्रभगवान मुक्ति के साधक कहते हैं; वे ही शुद्ध हैं, शुद्धोपयोगी हैं। सभी प्रकार के भ्रमों को दूर करके मैं उनकी वंदना करता हूँ । (दोहा) ऐसे सुपरविवेकजुत, लसें शुद्ध जे साध । मोखतत्त्वसाधक सोई, वर्जित सकल उपाध ।। १०३ ।। साधु इसप्रकार के विवेक से युक्त है और शुद्धोपयोग से शोभायमान हैं, शुद्ध हैं; सभी उपाधियों (परिग्रह) से रहित वे साधु ही मोक्षत्व साधक हैं।
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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