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________________ २३८ प्रवचनसार अनुशीलन मोक्षस्वरूपजानना चाहिए। पण्डित देवीदासजी इस गाथा के भाव को १ छन्द में प्रस्तुत करते हैं और कविवर वृन्दावनदासजी दो छन्दों में प्रस्तुत करते हैं; जो इसप्रकार हैह्न (अनंगशेखरदंडक) मिथ्या अचार टारि के जथार्थ तत्त्व धारि के, विवेक दीप वारि के स्वरूप जो निहारई। प्रशांत भाव पाय के विशुद्धता बढ़ाय पुव्व, बंध निर्जराय के अबंध रीति धारई।। न सो भमै भवावली तरै सोई उतावली, सोई मुनीश को पदस्थ पूर्णता सुसारई। यही सु मोखतत्त्व है त्रिलोक में महत्त है, सोई दयानिधान भव्य वृन्द को उधारई ।।१०।। जो श्रमण मिथ्या आचरण को टाल कर, यथार्थ तत्त्व को धारण कर और विवेकरूपी दीपक को जलाकर स्वरूप को निहारते हैं; प्रशान्तभाव को प्राप्त कर, विशुद्धता को बढ़ाकर, पहले बंधे कर्मों की निर्जरा करके अबंध रीति को धारण करते हैं; वे श्रमण संसार अटवी में परिभ्रमण नहीं करते और शीघ्र ही पूर्णता को प्राप्त करते हैं। वे श्रमण ही साक्षात् मोक्षतत्त्व हैं। वृन्दावन कवि कहते हैं कि तीन लोक में सर्वाधिक महान, दया के निधान वे हमारा उद्धार करें। (दोहा) जो परदरवनि त्यागि कै, है स्वरूप में लीन । सोई जीवनमुक्त है, मोक्षतत्त्व परवीन ।।१०१।। जो परद्रव्यों को त्याग कर स्वरूप में लीन रहते हैं; वे ही श्रमण जीवन मुक्त हैं और वे ही प्रवीण श्रमण मोक्षतत्त्व हैं। आध्यात्मिकसत्पुरुष श्री कानजी स्वामी इस गाथा के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र “यहाँ मोक्षतत्त्व अर्थात् सिद्ध पर्याय नहीं लेना है, किन्तु जो मुनि स्वरूप में रमणता कर रहे हैं, शुभभाव से दूर हैं, सर्वज्ञदशा के निकटवर्ती गाथा २७२ २३९ हैं तथा अप्रतिहत भावपूर्वक नियम से मोक्ष लेनेवाले हैं, उन मुनिराजों को मोक्षतत्त्व कहा है। यहाँ कहा है जो मुनिराज स्व में स्थित हैं, अयथाचार से रहित हैं, स्वरूप की अन्तर वीतरागता वर्तती होने से सम्पूर्ण श्रामण्य को प्राप्त हुए हैं ह्र वे मुनिराज मोक्षतत्त्व हैं। जिन जीवों ने मोक्षदशा को प्राप्त किया है, यहाँ उनकी बात नहीं है; अपितु जो स्वरूपलीन हैं, शुभभाव में न आकर नियम से मोक्षदशा पाने के लिये प्रयासरत हैं ह्र ऐसे स्वरूपलीनता युक्त मुनिराज की चर्चा है। यहाँ, उन्हें मोक्षतत्त्व कहा है। वे मुनिराज पुनः प्राणधारण करनेरूप दीनता को प्राप्त नहीं करते, अशुद्धभावरूप परावर्तन के अभाव के कारण शुद्धस्वभाव में स्थिर रहते हैं। इस सम्पूर्ण श्रामण्यवाले जीव का अन्य भावरूप परावर्तन नहीं होता । वह सदा एक ही भावरूप रहता है। शुद्ध स्वभाव में स्थिर परिणतिरूप रहते हैं; अतः ऐसे जीव मोक्षतत्त्वरूप हैं।' यहाँ तो स्वरूपगुप्त मुनिराजों की बात कर रहे हैं। स्वरूप में सावधान रहनेवाले और शुभभाव न करनेवाले उत्कृष्ट मुनि की बात है।' वास्तव में मुनिदशा ही मोक्षतत्त्व है।" शुभोपयोगी मुनि विकल्प में वर्तते हैं; अतः वे साक्षात् मोक्षतत्त्व नहीं है, वे परम्परा से मोक्षतत्त्व कहलाते हैं।" विगत गाथा से एकदम विपरीत इस गाथा में यह कहा गया है कि आत्मज्ञान अर्थात् सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान सहित निर्दोष चारित्र धारण करनेवाले भावलिंगी श्रमण ही मोक्षतत्त्व हैं और वेलीलामात्र में अष्टकर्मों का नाशकर अल्पकाल में ही मोक्ष प्राप्त कर लेंगे। इसप्रकार उक्त दोनों गाथाओं में क्रमश: मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी श्रमणों को संसारतत्त्व और सम्यग्दृष्टि भावलिंगी श्रमणों को मोक्षतत्त्व कहा गया है। १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४५९ २. वही, पृष्ठ ४६२ ३. वही, पृष्ठ ४६४ ४. वही, पृष्ठ ४६४ ५. वही, पृष्ठ ४६५ ६. वही, पृष्ठ ४६५
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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