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________________ २२४ प्रवचनसार अनुशीलन __यद्यपि जिनागम के अध्ययन से समस्त वस्तुओं के स्वरूप को जानते हों और कषायों के उपशम से प्रशस्त तपश्चर्या भी करते हों; तथापि यदि लौकिकजनों की संगति नहीं छोड़ते हैं तो वे मुनिराज प्रशस्त मुनिराज नहीं रहते; क्योंकि लौकिकजनों की संगति के रंग से उनके व्रत भंग हो जाते हैं; इसलिए कुसंगति का रास्ता छोड़ ही देना चाहिए। (द्रुमिला) निरग्रंथ महाव्रतधारक हो करि, जो इहि भाँति करै करनी। वरतै इस लौकिक रीति विर्षे, करै वैदक जोतिक मंतरनी ।। वह लौकिक नाम मुनी कहिये, परिभ्रष्ट दशा तिसकी वरनी। तपसंजमसंजुत होय तऊ, न तरै भवसागर दुस्तरनी ।।६०।। महाव्रतों के धारी निर्ग्रन्थ होने पर भी जो मुनिराज लौकिक रीति से वर्तते हैं; ज्योतिष, वैद्यक और तंत्र-मंत्र आदि की करनी करते हैं; उन मुनिराजों को लौकिक मुनि या लौकिकजन कहते हैं। तप और संयम से युक्त होने पर भी वे भ्रष्ट मुनि संसार-समुद्र से पार नहीं होते। स्वामीजी इन गाथाओं के भाव को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं ह्र ___ "जिन मुनिराजों ने वीतरागतापूर्वक पदार्थों और नवतत्त्वों का यथार्थ निश्चय किया है, क्रोध-मान-माया-लोभादि के परिणाम घटाये हैं और जो मुनिदशा में अधिक हैं, फिर भी लौकिकजनों के प्रति राग तथा उनका संसर्ग नहीं छोड़ते, वे मुनि नहीं हैं। ___ लौकिकजन मुनिराज को चारित्र से भ्रष्ट नहीं करते, किन्तु लौकिक जनों का समागम करके वे मुनिराज स्वयं अपना भावचरित्र नष्ट करते हैं।' ___ अन्तर्दशा की अधिकता होने पर भी यदि मुनिराज लौकिकजनों का परिचय करें तो उनको संयमपना नहीं रहता। जिसप्रकार अग्नि के संयोग से पानी विकाररूप उष्णता को प्राप्त होता है; उसीप्रकार लौकिकजनों के संग से मुनिराज चारित्रभ्रष्टरूप विकार को प्राप्त होते हैं; अतः लौकिकजनों के संग का निषेध है।' १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४३६ २. वही, पृष्ठ ४४० गाथा २६८-२६९ २२५ ज्योतिष, मंत्र-तंत्रादि या स्वयं के मानपोषण के लिये लौकिकजनों का संग करना मुनियोग्य आचरण नहीं है।' ___जो मुनि मोह के वशीभूत होकर ख्याति, लाभ, पूजा, निमित्त, ज्योतिष, मंत्रादि में लीन रहते हैं, वे मुनि होनेपर भी सामान्य व्यक्ति हैं। ___ मुनिराज परम वीतरागीदशा को प्राप्त करने की प्रतिज्ञा लेकर संयम और तपादि में लीन हुये हैं, किन्तु जो मुनिराज अपने शुद्ध चैतन्य स्वभाव के आश्रय से उत्पन्न निर्मलता का आश्रय छोड़कर, स्वरूप सावधानी को भूलकर, निरंतर मनुष्य व्यवहाररूप पूजा, ख्याति, लाभ आदि कार्यों में लीन रहते हैं, वे मुनि न होकर लौकिकजन हैं। सांसारिक कार्य अर्थात् ज्योतिष सीखकर ज्योतिषी बनना, मंत्र-तंत्र को सिद्ध करना, वचनसिद्धि करना, राजा को मंत्रादि सिखाना, जिससे स्वयं मान पुष्ट हो, सर्प-बिच्छु के विष दूर करने संबंधी मंत्र सीखना आदि सब कार्य मुनियोग्य नहीं हैं। साधु होनेपर भी रोग का उपचारादि बतावें। यह कार्य करोगे तो ठीक रहेगा आदि क्रिया का उपदेश देवें तो ये सब कार्य लौकिक हैं। मुनिराज अपने स्व-स्वभाव में लीनता नहीं कर सकें तो शुभभाव में आते हैं, किन्तु ख्याति-पूजा आदि अशुभभावों में जुड़ें तो वह लौकिकजन कहलाते हैं, मुनि नहीं।" इन गाथाओं में लौकिकजनों से सम्पर्क बढाने का बड़ी ही कठोरता से निषेध किया गया है; क्योंकि लौकिकजनों का समागम आत्मसाधना में बाधक ही है, साधक नहीं । यहाँ तो अत्यन्त स्पष्ट शब्दों में लिखा है कि भले ही जिनागम का ज्ञाता हो, मंदकषायी हो, तपस्वी हो; पर यदि वह श्रमण लौकिक लोगों का संसर्ग नहीं छोड़ता है तो वह असंयमी ही है। यहाँ लौकिकजनों का स्वरूप भी बताया गया है। लौकिकजन तो लौकिक हैं ही; किन्तु वे साधु भी लौकिकजनों में ही आते हैं। जो प्रसिद्धि, पूजा, लाभ के निमित्तभूत ज्योतिष से भविष्य आदि बताते हैं, मंत्र-तंत्र करते हैं और लौकिक जीवन के उपाय बताते हैं। आत्मा का कल्याण चाहनेवाले श्रमणों को उनका समागम नहीं करना चाहिए।. १. दिव्यध्वनिसार भाग ५, पृष्ठ ४४१ २. वही, पृष्ठ ४४२-४४३
SR No.009469
Book TitlePravachansara Anushilan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2008
Total Pages129
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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