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________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि n न रुष लोभ भय हास्य नहिं चित्त धारें, वचन सत्य आगम प्रमाणे उचारें । परम हितमित मिष्ट वाणी प्रचारी, मैं गुरु को समता विहारी ।। २१ । । सु ॐ ह्रीं श्री सत्यधर्मप्रतिष्ठिताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १३० ।। न है लोभ राक्षस न तृष्णा पिशाची, परम शौच धारें सदा जो अजाची । करैं आत्म शोभा स्व संतोष धारी, जजूँ मैं गुरु को भवातापहारी ।। २२ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमशौचधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १३१ ।। न संयम विराधें करें प्राणिरक्षा, दमैं इन्द्रियों को मिटावैं कु - इच्छा । निजानंद राचें खरे संयमी हो, मैं गुरु को यमी अरु दमी हो ।। २३ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमद्विविधसंयमपात्राचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १३२ ।। तपोभूषणं धार यदि विरागी, परमधाम सेवी गुणग्राम त्यागी । करें सेव तिनकी सु इन्द्रादि देवा, जूँ मैं चरण को लहूँ ज्ञान मेवा ।। २४ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमतपोऽतिशयधर्मसंयुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं नि. स्वाहा ।। १३३ ।। अभयदान देते परम ज्ञान दाता, सुधर्मोषधी बांटते आत्म त्राता । परम त्याग धर्मी परम तत्त्व मर्मी, 99 जजूँ मैं गुरु को शर्मौ कर्म गर्मी ।। २५ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्मप्रवीणाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १३४।।
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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