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________________ 98 n अपावन विनाशीक निज देह लखके, करें तप सु व्युत्सर्ग सन्तापहारी, तजें सब ममत्व सुधा आत्म चखके । जु जूँ मैं गुरु को परम पद विहारी ।। १६ ।। ॐ ह्रीं श्री व्युत्सर्गतपोऽभियुक्ताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।।१२५।। है आर्त- रौद्र कुध्यानं कुज्ञानं, उन्हें नहिं धरें ध्यान धर्म प्रमाणं । करें शुद्ध उपयोग कर्मप्रहारी, मैं गुरु को स्वानुभव सम्हारी ।। १७ ।। ॐ ह्रीं श्री ध्यानावलम्बननिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२६ ।। करैं कोय बाधा वचन दुष्ट बोले, प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि क्षमा ढाल से क्रोध मन में न कुछ ले । धेरै शक्ति अनुपम तदपि साम्यधारी, जजूँ मैं गुरु को स्वधर्मप्रचारी ।। १८ ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमक्षमापरमधर्मधारकाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२७ ।। धेरै मदन तप ज्ञान आदी स्व मन में, नरम चित्त से ध्यान धारें सु वन में । परम मार्दवं धर्म सम्यक् प्रचारी, जूँ मैं गुरु को सुधा - ज्ञानधारी ।। १९ । । ॐ ह्रीं श्री उत्तममार्दवधर्मधुरन्धराचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२८ ।। परम निष्कपट चित्त भूमी सम्हारे, लता धर्म बंधन करें शान्ति धारें । गुरु को श्रुत ज्ञान धारें ।। २० ।। ॐ ह्रीं • ह्रीं श्री उत्तमआर्जवधर्मपरिपुष्टाचार्यपरमेष्ठिभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ।। १२९६ ।।' करम अष्ट हन मोक्ष फल को विचारें, जूँ मैं
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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