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________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि १२. श्री वासुपूज्य भगवान का अर्घ्य (जोगीरासा) जल-फल दरब मिलाय गाय गुन, आठों अंग नमाई। शिवपदराज हेत हे श्रीपति! निकट धरों यह लाई।। वासुपूज वसुपूज तनुज पद, वासव सेवत आई। बालब्रह्मचारी लखि जिनको, शिवतिय सनमुख धाई।। ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्यजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। १३. श्री विमलनाथ भगवान का अर्घ्य (सोरठा) आठों दरब सँवार, मन-सुखदायक पावने । जजों अर्घ्य भर थार, विमल विमल शिवतिय रमन ।। ॐ ह्रीं श्री विमलनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। १४. श्री अनन्तनाथ भगवान का अर्घ्य (हरिगीता) शुचि नीर चन्दन शालिशंदन, सुमन चरु दीवा धरों। अरु धूप फल जुत अरघ करि, कर जोर जुग विनती करों।। जगपूज परमपुनीत मीत, अनन्त संत सुहावनों। शिवकंतवंत महंत ध्यावो, भ्रन्ततन्त नशावनों ।। ॐ ह्रीं श्री अनन्तनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। १५. श्री धर्मनाथ भगवान का अर्घ्य (जोगीरासा) आठों दरब साज शुचि चितहर, हरषि हरषि गुन गाई। बाजत दृम दृम दृम मृदंग गत, नाचत ता थेई थाई ।। परम धरम-शम-रमन धरम-जिन, अशरन शरन निहारी। पूर्जे पाय गाय गुन सुन्दर, नाचौं दै दै तारी ।। ॐ ह्रीं श्री धर्मनाथजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। 11
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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