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________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि n श्री वीतराग पूजन (दोहा) शुद्धातम में मगन हो, परमातम पद पाय । भविजन को शुद्धात्मा, उपादेय दरशाय ।। जाय बसे शिवलोक में, अहो अहो जिनराज । वीतराग सर्वज्ञ प्रभो, आयो पूजन काज ।। ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अत्र अवतर अवतर संवौषट् । ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः । ॐ ह्रीं श्री वीतराग देव! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् । ज्ञानानुभूति ही परमामृत है, ज्ञानमीय मेरी काया । है परम पारिणामिक निष्क्रिय, जिसमें कुछ स्वाँग न दिखलाया ।। मैं देख स्वयं के वैभव को, प्रभुवर अति ही हर्षाया हूँ । अपनी स्वाभाविक निर्मलता, अपने अन्तर में पाया हूँ ।। थिर रह न सका उपयोग प्रभो, बहुमान आपका आया है। समतामय निर्मल जल ही प्रभु, पूजन के योग्य सुहाया है ॥ ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा । है सहज अकर्त्ता ज्ञायक प्रभु, ध्रुव रूप सदा ही रहता है। सागर की लहरों सम जिसमें, परिणमन निरन्तर होता है ।। है शान्ति सिन्धु ! अवबोधमयी, अद्भुत तृप्ति उपजाई है। अब चाह दाह प्रभु शमित हुई, शीतलता निज में पाई है ।। विभु अशरण जग में शरण मिले, बहुमान आपका आया है। चैतन्य सुरभिमय चन्दन ही, पूजन के योग्य सुहाया है ।। ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय संसारतापविनाशनाय चन्दनं निर्वपामीति स्वाहा । अब भान हुआ अक्षय पद का, क्षत् का अभिमान पलाया है। प्रभु निष्कलंक निर्मल ज्ञायक अविचल अखण्ड दिखलाया है ।। जहाँ क्षायिकभाव भी भिन्न दिखे, फिर अन्यभाव की कौन कथा । अक्षुण्ण आनन्द निज में विलसे, निःशेष हुई अब सर्व व्यथा ॥ u 59
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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