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________________ प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि 103 पच्चीस गुणयुक्त उपाध्याय परमेष्ठी के लिए अर्घ्य (द्रुतविलम्बित) प्रथम अङ्ग कथत आचार को, सहस्र अष्टादश पद धारतो। पढत साधु सु अन्य पढावते, जगँ पाठक को अति चाव से ।।१।। ॐ ह्रीं श्री अष्टादशसहस्रपदसंयुक्ताचाराङ्गधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१४६।। द्वितीय सूत्रकृतांग विचारते, स्व पर तत्त्व सु निश्चय लावते । पद छत्तीस हजार विशाल हैं, जजूं पाठक शिष्य दयालु हैं ।।२।। ॐ ह्रीं श्री षट्त्रिंशत्सहस्रपदसंयुक्तसूत्रकृतांगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१४७।। तृतीय अङ्ग स्थान छः द्रव्य को, पद हजार बियालिस धारतो। एक द्वै त्रय भेद बखानता, जनँ पाठक तत्त्व पिछानता ।।३।। ॐ ह्रीं श्री द्विचत्वारिंशत्पदसंयुक्तस्थानांगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽर्थ्य नि. स्वाहा ।।१४८।। द्रव्य क्षेत्र समय अर भाव से, साम्य झलकावे विस्तार से। लख सहस्र चौंसठ पद धारता, जā पाठक तत्त्व विचारता ।।४।। ॐ ह्रीं श्री एकलक्षषष्टिपदन्याससहस्रसमवायांगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१४९।। प्रश्न साठ हजार बखानता, सहस अठविंशति पद धारता । द्विलख और विशद परकाशता, जगूं पाठक ध्यान सम्हारता ।।५।। ॐ ह्रीं श्री द्विलक्षाष्टाविंशतिसहस्रपदरंजितव्याख्याप्रज्ञप्त्यंगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१५०॥ धर्मचर्चा प्रश्नोत्तर करे, पाँच लाख सहस छप्पन धरे। पद सु मध्यम ज्ञान बढावता, जजू पाठक आतम ध्यावता ।।६।। ॐ ह्रीं श्री पंचलक्षषट्पंचाशत्सहस्रपदसङ्गतज्ञातृधर्मकथांगधारकोपाध्यायपरमेष्ठिभ्योअयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१५।।
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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