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________________ 102 प्रतिष्ठा पूजाञ्जलि तजें सब ममत्वं शरीरादि सेती, खड़ें आत्म ध्यावे छुटे कर्म रेती। लहैं ज्ञान भेदं सु व्युत्सर्ग धारें, जजूं मैं गुरु को स्व-अनुभव विचारें।।३६।। ॐ ह्रीं श्री व्युत्सर्गावश्यकनिरताचार्यपरमेष्ठिभ्योऽयं निर्वपामीति स्वाहा ।।१४५।। गुण अनन्त धारी गुरु, शिवमग चालनहार। संघ सकल रक्षा करे, यह विघ्न हरतार ।। ॐ ह्रीं श्री अस्मिन् प्रतिष्ठोद्यापने पूजाहमुख्यषष्टवलयोन्मुद्रिताचार्यपरमेष्ठिभ्यो पूर्णायँ निर्वपामीति स्वाहा। जो मंगल चार जगत में हैं, हम गीत उन्हीं के गाते हैं। मंगलमय श्री जिन-चरणों में, हम सादर शीष झुकाते हैं ।।टेक।। जहाँ राग-द्वेष की गंध नहीं, बस अपने से ही नाता है। जहाँ दर्शन-ज्ञान-अनन्तवीर्य-सुख का सागर लहराता है।। जो दोष अठारह रहित हुए, हम मस्तक उन्हें नवाते हैं। मंगलमय श्री जिन-चरणों में हम सादर शीष झुकाते हैं ।।१।। जो द्रव्यभाव-नोकर्म रहित नित सिद्धालय के वासी हैं। आतम को प्रतिबिम्बित करते जो अजर-अमर अविनाशी हैं।। जो हम सबके आदर्श सदा हम उनको ही नित ध्याते हैं। मंगलमय श्री जिन-चरणों में हम सादर शीश झुकाते हैं ।।२।। जो परम दिगम्बर वनवासी गुरु रत्नत्रय के धारी हैं। आरम्भ-परिग्रह के त्यागी जो निज चैतन्य विहारी हैं ।। चलते-फिरते सिद्धों से गुरु-चरणों में शीश झुकाते हैं। मंगलमय श्री जिन-चरणों में हम सादर शीश झुकाते हैं।।३।। प्राणों से प्यारा धर्म हमें केवली भगवन का कहा हुआ। चैतन्यराज की महिमामय यह वीतराग रस भरा हुआ ।। इसको धारण करने वाले भव-सागर से तिर जाते हैं। मंगलमय श्री जिन-चरणों में हम सादर शीश झुकाते हैं ।।४।।
SR No.009468
Book TitlePratishtha Pujanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Shastri
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year2012
Total Pages240
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, M000, & M005
File Size1 MB
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