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________________ सातवाँ दिन साहित्य को ही शास्त्र कहते हैं। सर्वज्ञ का स्वरूप स्पष्ट हुए बिना शास्त्रों का मर्म भी समझना संभव न होगा। गुरु भी तो उन्हीं को कहते हैं, जो सर्वज्ञ प्रणीत शास्त्रों के अनुसार अपनी श्रद्धा बनाते हैं और उन्हीं के अनुसार जिनका आचरण होता है। अत: यह सुनिश्चित है कि केवलज्ञान का स्वरूप समझे बिना सच्चे देवशास्त्र-गुरु का स्वरूप भी समझ में नहीं आयेगा और सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का स्वरूप समझे बिना व्यवहार सम्यग्दर्शन भी न होगा। अतः केवलज्ञान का स्वरूप समझना अत्यन्त आवश्यक है। अब कल मोक्षकल्याणक की चर्चा होगी। सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार सत्य की प्राप्ति और सत्य का प्रचार दो अलग-अलग चीजें हैं। सत्य की प्राप्ति के लिए समस्त जगत से कटकर रहना आवश्यक है। इसके विपरीत सत्य के प्रचार के लिए जनसंपर्क जरूरी है। सत्य की प्राप्ति व्यक्तिगत क्रिया है और सत्य का प्रचार सामाजिक प्रक्रिया। सत्य की प्राप्ति के लिए अपने में सिमटना जरूरी है और सत्य के प्रचार के लिए जन-जन तक पहुँचना। साधक की भूमिका और व्यक्तित्व द्वैध होते हैं । जहाँ एक ओर वे आत्म-तत्त्व की प्राप्ति और तल्लीनता के लिए अन्तरोन्मुखी वृत्ति वाले होते हैं, वहीं प्राप्त सत्य को जन-जन तक पहुँचाने के विकल्प से भी वे अलिप्त नहीं रह पाते हैं। उनके व्यक्तित्व की यह द्विविधता जनसामान्य की समझ में सहज नहीं आ पाती। यही कारण है कि कभी-कभी वे उनके प्रति शंकाशील हो उठते हैं। यद्यपि उनकी इस शंका का सही समाधान तो तभी होगा, जबकि वे स्वयं उक्त स्थिति को प्राप्त होंगे; तथापि साधक का जीवन इतना सात्विक होता है कि जगत-जन की वह शंका अविश्वास का स्थान नहीं ले पाती। - सत्य की खोज, पृष्ठ १४२
SR No.009467
Book TitlePanchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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