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________________ 52 पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव ____ गाँव-गाँव में आहारदान की विधि पर ही निरन्तर व्याख्यान करने वाले साधु-सन्तों को मुनिराज ऋषभदेव की इस वृत्ति पर विशेष ध्यान देना चाहिए। देखो, कैसा विचित्र है वस्तु का स्वरूप और कैसी विचित्र है इस जगत की स्थिति। पहले, दूसरे और तीसरे काल में जब यहाँ भोगभूमि थी तो सभी जीव मर कर स्वर्ग ही जाते थे, न तो किसी को मोक्ष होता था और न कोई नरक या तिर्यन्च गति में ही जाता था; पर जब सर्वज्ञ-वीतरागी तीर्थंकर ऋषभदेव के उपदेश से मुक्ति का मार्ग उद्घाटित हुआ तो उसी समय नरक व तिर्यंच गति का दरवाजा भी खुल गया। जब धर्म की प्रवृत्ति आरंभ होती है तो उसका विरोध भी आरंभ हो जाता है और असली धर्मात्माओं से भी अधिक नकली धर्मात्मा खड़े हो जाते हैं। इसीप्रकार मुक्ति के मार्ग के साथ-साथ नरक निगोद का रास्ता भी खुल जाता है। कैसा विचित्र संयोग है कि ऋषभदेव के रूप में यदि एक व्यक्ति ने सच्चा मुनिधर्म अंगीकार किया तो रागवश या अज्ञानवश चार हजार लोगों ने बिना कुछ सोचे-बूझे मुनिवेष धारण कर लिया। यह अनुपात तो युग की आदि का है। उसके बाद तो निरन्तर दशा बिगड़ी ही है। इससे हम आज की स्थिति का अनुमान लगा सकते हैं। इसीप्रकार जब ऋषभदेव की दिव्यध्वनि के माध्यम से मुक्ति का मार्ग उद्घाटित हुआ तो मारीचि आदि के माध्यम से उसका विरोध आरंभ हो गया। इसप्रकार युग की आदि में ही जहाँ एक ओर ऋषभदेव की सच्ची साधुता और दिव्यध्वनि के माध्यम से मुक्ति के मार्ग का प्रचार-प्रसार हुआ, वहीं दूसरी ओर शिथिलसाधुता और वीतरागी तत्त्व के विरोध के माध्यम से नरकनिगोद का रास्ता भी खुल गया। आज तो स्थिति अत्यन्त विषम है, पर आत्मार्थियों को इसमें उलझना उचित नहीं है। क्योंकि उनके शुद्ध-सात्विक प्रयासों से कुछ होना तो संभव
SR No.009467
Book TitlePanchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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