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________________ दूसरा दिन ये पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव भगवान बनने की प्रक्रिया के महोत्सव हैं । इन महोत्सवों में जितने भी जिनबिम्ब (प्रतिमाएँ) प्रतिष्ठित होने आते हैं, वे सभी प्रतिष्ठित होकर ही जाते हैं, भगवान बनकर ही जाते हैं। यह तो सर्वविदित ही है कि प्रतिष्ठित जिनबिम्बों को स्थापनानय और स्थापनानिक्षेप के आधार पर भगवान कहने का ही व्यवहार प्रचलित है, जो उचित भी है। मैं तो जिस भी पंचकल्याणक में प्रवचनार्थ जाता हूँ, वहाँ अपने आरंभिक प्रवचनों में एक बात अवश्य कहता हूँ कि इस पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव में समागत धातु या पाषाण की मूर्तियाँ जब भी यहाँ से वापिस जायेंगी, तब वे भगवान बनकर ही जायेंगी, पर इस पंचकल्याणक में समागत जनता की भी कोई जिम्मेदारी है कि वे जैसे आये हैं, वैसे ही वापिस न चले जावें, यहाँ से कुछ लेकर जावें, कुछ सीखकर जावें। भले ही वे मूर्तियों के समान भगवान न बन पावें, पर उनमें भी तो कुछ न कुछ परिवर्तन तो आना ही चाहिए। ___ मैं महिलाओं से विशेष रूप से कहता हूँ कि यदि गृहस्थी की झंझटों के कारण बहू यहाँ न आ पाई हो, पर सास आ गई हो तो उसकी यह जिम्मेदारी है कि जब वह वापिस घर पहुँचे तो उसकी बातों से नहीं, अपितु उसके व्यवहार से यह प्रतीत होना चाहिए कि अम्माजी गंगाजी नहा के आई हैं, पंचकल्याणक देख के आई हैं, इस कारण अब ज्वालाबाई से शान्तिबाई हो गई हैं। उनके स्वभाव में थोड़ी-बहुत नम्रता व सरलता तो आना ही चाहिए। ___ यदि कारणवश बहू आ गई हो, सास न आ पाई हो तो उसकी भी जिम्मेवारी है कि जब वह वापिस अपने घर पहुंचे तो उसकी ड्रेसिंग टेबिल पर शीशियों की भीड़ कुछ न कुछ कम अवश्य होनी चाहिए।
SR No.009467
Book TitlePanchkalyanak Pratishtha Mahotsava
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages96
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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