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________________ १७२ पञ्चास्तिकाय परिशीलन अब पर पदार्थों से भेद तथा अपने आत्मा के गुण-गुणी में अभेद बताते हुए कहते हैं कि ह्र शरीर, कर्म, आहार पानी के द्रव्य-क्षेत्रकाल-भाव आत्मा से सर्वथा भिन्न हैं। इसप्रकार पर के चतुष्टय पर में तथा आत्मा के द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावरूप स्व-चतुष्टय आत्मा में है। इसकारण पर के कारणों से आत्मा की पर्याय में कुछ भी फेरफार नहीं होता। अब कहते हैं कि ह जिसप्रकार पर चतुष्टय आत्मा से अभाव रूप हैं, उसप्रकार गुण के चतुष्टय गुणी (आत्मा) से अभाव रूप नहीं है; किन्तु एक हैं। जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव गुणी के हैं, वे ही गुणों के हैं। तथा जो द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव गुण के हैं, वे ही गुणी हैं। अभेदरूप आत्मा के ज्ञान दर्शन, चारित्र, वीर्य, स्वच्छत्व, कर्ता, कर्म, करण, सम्प्रदान आदि गुण आत्मा से भिन्न नहीं है। भेदनय से देखें तो आत्मा में अनेकता भी है। मति श्रुत अविध मनः पर्यय एवं केवलज्ञान ह्र इस तरह ज्ञान की पाँच अवस्थायें हैं। इनमें केवलज्ञानी के मात्र एक केवलज्ञान ही होता है। संसारी जीवों में किसी को मति एवं श्रुत ह्न दो ज्ञान होते हैं, किसी को मति श्रुत अवधि या मति श्रुत एवं मनःपर्यय ह्न ये तीन ज्ञान होते हैं। किन्हीं को मति श्रुत अवधि व मनःपर्यय के भेद से ह्र चार ज्ञान भी होते हैं। इस तरह वस्तु एक होते हुए भी अनेक रूप से परिणमित हो ह्र ऐसा उसका स्वभाव है। मूल गाथा में ही कहा है कि ह्र आत्मा स्वयं एकपने के स्वभाव में रहते हुए अनेकपने भी परिणमता है। अभेद स्वभाव में रहकर स्वयं ही भेदरूप होता है। विश्व शब्द जो आया है उसका अर्थ भी अनेक रूप होता है। तात्पर्य यह है कि ह्र ऐसा भेदरूप होना भी वस्तु का ही स्वभाव है, पर के कारण ऐसा नहीं होता। जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) मूल बात यह है कि ह्न द्रव्य अनन्त गुणों एवं अनन्त गुणों की अनन्त पर्यायों की आधार रूप एक वस्तु है। अपने में विकारी हो या अविकारी हो; अधूरी दशा हो या पूर्ण विकास रूप दशा हो, चाहे जो दशा हो; परन्तु उसका आधार वह स्वयं है। अन्य के आधार से अपने में कुछ नहीं होता । वस्तु एक अभेद होते हुए भी पर्यायों से अनेक हैं। निगोद से सिद्ध तक सबका स्वभाव ऐसा ही है। अज्ञानी ऐसा कहते हैं कि ह्न 'असंज्ञी जीव कर्म के कारण संसार में भटकता है, वहाँ बुद्धिपूर्वक पुरुषार्थ नहीं है, इस कारण कर्म का जोर है।' जो ऐसा कहता है, सो उसका वह कथन असत्य है। कुमति-कुश्रुत ज्ञान का परिणमन अपने स्वयं के कारण है, कर्म के कारण नहीं है। जब कोई जीव क्षायिक समकिती होता है, तब यद्यपि केवली या श्रुत केवली की उपस्थिति होती है; परन्तु केवली या श्रुतकेवली के कारण क्षायिक समकित नहीं होता। यदि पर्याय को पराधीन माने तो पर्याय में सुधार का अवसर नहीं रहता। इसलिए पर्याय का स्वतंत्रपने होना एवं अनेकपने होना जीवास्तिकाय का स्वयं का धर्म है। ऐसा ज्ञान करके तथा पर्याय की रुचि छोड़कर अभेद स्वभाव की श्रद्धा व ज्ञान करना धर्म इसप्रकार हम कह सकते हैं कि ह्न जो गुण द्रव्य से सर्वथा जुदा हो अथवा गुणों से द्रव्य सर्वथा जुदा हो तो उष्णता व अग्नि को एक कैसे माना जा सकेगा? उष्णता को अग्नि से पृथक् मानने का प्रसंग प्राप्त होगा। जो संभव नहीं है। इसप्रकार यह सिद्ध हुआ कि आत्म वस्तु ज्ञानगुण से पृथक् नहीं है। (95) १.श्री सद्गुरु प्रसाद प्रवचन प्रसाद नं. १३६, पृष्ठ १०७६, दिनांक ७-३-५२
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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