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________________ १४८ पञ्चास्तिकाय परिशीलन के अनुभव के साथ कार्य (कर्म) करने की प्रधानता से ही चेतते हैं, वे कर्मचेतनावाले हैं। इन्हें अल्प वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से इष्टानिष्ट विकल्परूप कर्म करने की सामर्थ्य प्राप्त हुई है। तीसरे प्रकार के चेतयिता सम्यकदृष्टि चौथे गुणस्थान से छावस्था में ज्ञान चेतना की मुख्यता रहती है तथा अरहंत-सिद्ध आत्मा वे हैं, जिनमें से सकल मोह कलंक धुल गया है तथा समस्त ज्ञानावरण के विनाश के कारण जिसका समस्त प्रभाव अत्यन्त विकसित हो गया है ऐसे चेतक स्वभाव द्वारा मात्र उस ज्ञान को ही चेतते हैं जो कि अपने से अभिन्न स्वाभाविक सुखवाला है; क्योंकि उन्होंने समस्त वीर्यान्तराय के क्षय से अनन्त वीर्य को प्राप्त किया है, इसकारण उनको विकारी सुखदुखरूप कर्मफल निर्जरित हो गया है। वे कृतकृत्य हो गये हैं। " | यद्यपि उन्हें अनन्त वीर्य प्रगट हुआ है; परन्तु सम्पूर्ण विकार और अल्पज्ञान नष्ट हो जाने से वीर्य कर्मचेतना व कर्मफलचेतना को नहीं रचता । आचार्य जयसेन टीका में कहते हैं कि एक जीवराशि तो निर्मल शुद्धात्मानुभूति के अभाव से उपार्जित प्रकृष्ट मोह से मलीमस चेतकभाव द्वारा प्रच्छादित सामर्थ्यवाली होती हुई स्व-सामर्थ्य को प्रगट नहीं करती, अत: मात्र कर्मफल का ही वेदन करती है। दूसरी जीव राशि चेतकभाव से सामर्थ्य प्रगट हो जाने के कारण इच्छापूर्वक इष्टानिष्ट विकल्परूप कर्म का वेदन करती है। तीसरी जीवराशि उसी चेतकभाव से विरुद्ध आत्मानुभूति की भावना द्वारा कर्मकलंक को सर्वथा नष्ट कर देने के कारण केवलज्ञान द्वारा कर्मफल, कर्म तथा ज्ञानचेतना का सम्पूर्ण पदार्थों का वीतराग भाव से भेदाभेदरूप अनुभव करती है। इस गाथा के एवं उक्त दोनों आचार्यों की टीकाओं के भाव को ग्रहण करते हुए कविवर हीरानंदजी कहते हैं कि ह्र (83) जीव द्रव्यास्तिकाय (गाथा २७ से ७३) १४९ ( दोहा ) एक करमफल अनुभवै, एक करम इक ग्यान । जीवरासि चेतक लसै, त्रिविध चेतना जान ।। २०३ ।। ( सवैया इकतीसा ) मोहसौं मलीन जीव छादित है ग्यानभाव, दुःख-सुखरूप कर्म - फलभोगी है । दुख-सुख - लहरी मैं राग-द्वेष-मोह बसै, ग्यानावनादि नाना कर्म का नियोगी है ।। मोहमूल दूरि भयौ कर्म सर्व नासि गयौ, सुद्ध-चेतना - विलास ग्यान उपयोगी है। कर्म - मल- कर्मरूप चेतना असुद्ध हेय, उपादेय सुद्ध - ग्यान चेतनानुजोगी है || २०४ । । एक इन्द्रिय स्थावर जीव राशि तो ऐसी है जो मात्र कर्म फल को भोगती है। दूसरी त्रस जीव राशि ऐसी है जो कर्म करूँ कर्म करूँ ह्र ऐसे कर्तृत्व में ही अटकी रहती है। तीसरी ज्ञान चेतना वाली जीव राशि है। जो ज्ञान स्वभाव का ही अनुभव करती है। उक्त गाथा पर प्रवचन करते हुए गुरुदेवश्री कहते है कि “जीव असंख्यात प्रदेशी होने पर भी उसकी पर्याय में अन्तर पड़ता है; परन्तु वह अन्तर किसी पर के कारण नहीं, वह भी अपने अस्तिकाय का ही स्वरूप है। एक एकेन्द्रिय जीवराशि तो मात्र कर्मों के निमित्त से सुख - दुखरूप फल को ही वेदती है। ये जीव अनन्त हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि जीव। आलू-शकरकन्द आदि कन्दमूल के जीव हर्षशोक को वेदते हैं। आलू के एक छोटे से कण में असंख्य शरीर हैं और प्रत्येक शरीर में अनन्त आत्मायें हैं। जो नित्यनिगोद का जीव अभी तक व्यवहार राशि में नहीं आया, अनादिकाल से वहीं है, वह कर्म के कारण
SR No.009466
Book TitlePanchastikay Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2010
Total Pages264
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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